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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

महात्मा और चोर -सत्संग की महिमा


महात्मा तुसली दास ने श्रीरामचरित मानस में सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है ;
                "बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। "
सत्संग की महिमा पर एक कहानी याद आ गई। बहुत समय पहले की बात है । किसी गाँव में एक व्यक्ति ने चोरों का एक समूह बनाया था । वह स्वयं उनका सरदार था। रात के अँधेरे में दूर-दराज के दूसरे गाँवों में सेंध लगा कर चोरी करना उनका नित्य का नियम था। चोरी से प्राप्त धन को आपस में बाँट लिया करते थे। इस प्रकार प्राप्त धन से वे अपना और अपने परिवार का भरण -पोषण करते थे। यह सिलसिला बहुत दिनों से चलता आ रहा था। रोज रोज की चोरी से लोग बहुत परेशान थे।

एक दिन सरदार कही जा रहा था। अचानक आसमान में चारों तरफ बादल छा गए, गर्जना होने लगी , तूफान चलने लगा , दिन में ही चारों तरफ अँधेरा छा गया। घनघोर वर्षा होने लगी। मौसम बहुत डरावना हो गया। छुपने के लिए चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई, कहीं भी सुरक्षित स्थान दिखाई नहीं दिया। घास फूस की एक झोपड़ी के अतिरिक्त वहाँ दूर दूर तक कहीं कुछ भी नहीं था। चोर पूरी तरह भीग गया था ।  मौसम के भयंकर मिजाज से वह बहुत घबरा रहा था। उसने आव देखा न ताव, दौड़ कर  झोपड़ी में जा घुसा। झोपड़ी में एक साधु महात्मा आसन लगाए ध्यान मग्न बैठे थे। आँखे बंद किये वे भक्ति भावना में लीन थे। सरदार चुप-चाप उनके सामने बैठ गया। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। चोर बैठा रहा । कुछ देर बाद साधू ने आँखे खोली, सरदार को देखा। वह भीग गया था, ठण्ड से काँप रहा था ।  अन्तर्यामी जाननहार झट पहचान लिया  कि यह ठग है।महात्मा जी के मन में दया आ गई।उन्होंने तुरंत ही  उसको  पहनने के लिए कपडे , ओढ़ने के लिए एक कंबल , खाने के लिए कुछ फल दिए । चोर ने उनके चरणों में गिरकर प्रणाम किया। बातचीत चलने लगी, चोर ने बताया कि ,मिया बीबी और पांच बच्चे समेत परिवार में कुल सात लोग हैं। सबका भरण पोषण उसे ही करना पड़ता है। महात्मा जी ने उसको सन्मार्ग पर लाने के उद्देश्य से ऐसा प्रसंग आरम्भ किया जिसका भावार्थ था कि संसार के सभी प्राणियों को अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है। उस प्रसंग को सुनने के बाद सरदार बेचैन हो गया। महात्मा ने बड़े ही शांत और सरल भाव से पूछा, कहो वत्स ! सब कुशल तो है, तुम इतने बेचैन क्यों हो ?
महात्मा जी के शांत सरल स्वाभाव और तेजस्वी रूप को देखकर चोर के मन में ठगी चोरी जैसे बुरे कर्मों के प्रति घृणा होने लगी थी । चोर ने महात्मा से कहा, " महात्मन! मेरे यहाँ सब कुशल है। मुझे केवल एक चिंता खाए जा रही है। मैंने जीवन भर चोरियाँ की हैं, दूसरों का धन लूटा है। मेरे पाप की गठरी भर गई है। आप संत महात्मा हैं। प्रभु के अनन्य भक्त हैं और बड़े दयालु है। मुझ पर भी कुछ दया कीजिये। मुझे इस पाप से छुटकारा दिलाइये और मेरे उद्धार का मार्ग बताइए।"

महात्मा जी समझ गए  कि इसके अंदर सदबुद्धि का संचार हो रहा है। कुछ क्षण विचार करने के बाद साधु ने कहा," सरदार! यदि तुम सचमुच अपना कल्याण चाहते हो तो मेरी बताई हुई दो बातों को सदा याद रखना और उनका पालन करना । चोर बोला "महात्मा जी! मैं आपकी बताई हुई हर बात याद रखूंगा, जीवन भर कड़ाई से उनका पालन करूंगा। आप शीघ्र ही वह उपाय बताइए ।" तब एक शंख देते हुए साधू ने चोर से कहा -" सरदार! मेरी बात ध्यान से सुनो। आज के बाद जब भी तुम्हें भोजन की इच्छा हो तो भोजन ग्रहण करने से पहले पालथी मार कर पृथ्वी पर बैठ जाना। भोजन का थोड़ा सा अंश भगवान् को अर्पित करते हुए मन में कुछ क्षण परमपिता परमेश्वर का ध्यान लगाना । फिर यह शंख बजाना। उसके बाद  भोजन ग्रहण करना।" चोर ने कहा -" महात्मन ! मैं आपके इस उपदेश का सदैव पालन करूंगा। आप शीघ्र ही दूसरी बात बताइए।" महात्मा जी ने दूसरा मन्त्र देते हुए उसको कहा-" प्रिय बोलना, सदा सच बोलना, कभी झूठ मत बोलना।" इतना कह कर महात्मा जी ने आसन छोड़  दिया और उठ गए । चोर घर वापस आ गया।
सरदार ने चोरी करना बंद कर दिया। उसके बिना उसके साथी लोग भी चोरी करने से डरने लगे। उनको भी यह काम बंद करना पड़ा।   चोरी के अलावा  वे कमाई का अन्य उपाय जानते ही न थे। चोरी करना छोड़ दिया तो उन्हें खाने के लाले पड़ गए। बच्चे भूख से तड़पने लगे।उनके घरों में कलह शुरू हो गई। भूख से बिलबिलाते बच्चों का रोना-धोना उनसे देखा नहीं गया। सबने  पुनः चोरी शुरू करने निश्चय किया।  सरदार को मनाने के लिए  सब उसके पास गए।  चोरी करने के लिए साथ चलने का आग्रह किया । किन्तु सरदार ने चोरी जैसा घृणित कार्य करने से साफ़ मना कर दिया।तब  क्रोधित हो उन लोगों ने  सरदार से कहा-" सरदार! हमको चोरी करना तुमने सिखया ,तुम्हारा कहना मान कर बचपन से हम यही काम कर रहे हैं। पैसा कमाने का दूसरा तरीका सीखा ही नहीं। चोरी बंद कर देने से हम निर्धन हो गए । हमारे बच्चे भूख से तड़प रहे है। यह सब तुम्हारे कारण हो रहा है। तुम्हें हमारे साथ चलना ही पड़ेगा।" सरदार ने सोचा कि महात्मा जी ने केवल झूठ बोलने से मन किया है, चोरी करने से तो रोका ही नहीं। यह सोचकर वह अपने साथियों की बात मान गया।

दिन ढलने के बाद सभी चोर सरदार के घर में एकत्रित हुए। योजना बनाकर सब एक साथ निकल पड़े। काले कपडे पहने सरदार आगे-आगे बाकी चोर उसके पीछे। सुनसान रात में उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। बहुत दूर चले गए किन्तु कोई गाँव दिखाई नहीं पड़ा । निराश होकर वे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और सोचने लगे लगता है आज कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। प्रोत्साहित करते हुए सरदार  सबको साथ लेकर  पुनः आगे बढ़ा। कुछ ही दूर गए होंगे कि उनको बड़ा सा एक गाँव दिखाई दिया। सुनसान रात थी ,घुप अँधेरा था, गाँव में सब सोये हुए थे। सब कुछ उनके अनुकूल था। एक घर में सेंध लगाई और अन्दर घुस गए। घर में सभी सोये हुए थे। जिस चोर के हाथ जो लगा उसे उठा लिया। सरदार अपने लिए कोई कीमती वस्तु ढूढ़ रहा था, बहुत देर तक ढूँढने के बाद उसे एक लोटा दिखाई दिया। लोटा दूध से भरा था। सरदार को बहुत भूख लगी थी। दूध देख कर उसकी जीभ लुट-पुटाने लगी। वह दूध को पीने  ही वाला था कि साधू-महात्मा की बताई हुई पहली सीख याद आ गई। साधू ने कहा था - कोई चीज खाने से पहले जमीन पर पालथी मार कर बैठ जाना, भगवान् को भोग लगवाकर शंख बजाना, उसके बाद भोजन ग्रहण करना। यह याद आते ही उसने वही किया जो साधु ने बताया था । घर के आँगन में गया. वहां पालथी मार कर जमीन पर  बैठ गया, भगवान् को भोग लगाया फिर लगा  जोर-जोर से शंख बजाने  । शंख की आवाज सुनकर उसके साथी चोर घबरा गए।  पकडे जाने के डर से वे  तो भाग गए, किन्तु सरदार ने यथावत अपना काम जारी रखा। वह शंख बजाता रहा। शंख की आवाज सुनकर उस घर के लोगों का जागना स्वाभाविक था वे दौड़ कर  झटपट  आँगन में आये। चोर को शंख बजाते देख कर सब बड़े  आश्चर्यचकित हुए । उन्होंने चोर से पूछा-"! तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?" चोर को महात्मा की बताई हुई दूसरी सीख याद आ गई। महात्मा जी ने कहा था कि प्रिय बोलना सच बोलना कभी झूठ मत बोलना। सच बोलते हुए उसने प्रिय वाणी में कहा -"प्रिय सज्जनों! मैं चोर हूँ और तुम्हारे यहाँ चोरी करने आया हूँ।" यह सुनकर उस घर के कुछ नौजवान उसको मारने दौड़े, किन्तु एक बुजुर्ग ने समझाते हुए कहा - यह चोर नहीं कोंई साधू-महात्मा हैं, चोर घर में घुसकर शंख नहीं बजाते और नहि इस तरह अपने आप को चोर कहते हैं।। इन्हे मारो नहीं, मारने से सर्वनाश हो जायेगा, इनकी  सेवा करो।इनके पाँव छुओ , पूजा करो।  इससे   कल्याण होगा। घर के लोगों ने बुजुर्ग की बात का  विश्वास किया, बारी-बारी नतमस्तक हो सबने प्रणाम किया,कोमल आसन पर बैठाकर उसके पाँव पखारे। खाने के लिए स्वादिष्ट पकवान दिए । रात भर उसकी खूब सेवा की।
इलाके में यह बात आग की तरह फ़ैल गई कि फलाँ गाँव में एक किसान के घर महात्मा जी पधारे है। उनके दर्शन से सबका कल्याण होगा। सुबह होते ही चोर के दर्शन करने वालों का ताँता लग गया। लोग उसको अर्पित करने के लिए फूल-पान आदि तो ले ही आ रहे थे, कुछ लोग तो कीमती वस्तुए- हीरे जवाहरात आदि चढ़ाकर सुख शान्ति, धन पुत्र पाने के लिए अरदास करने लगे। चोर  बार-बार कहता रहा कि मैं साधू-महात्मा नहीं, चोर् हूँ। वह जितनी बार इस बात को दोहराता उसके प्रति लोगो का विश्वास उतना ही ज्यादा दृढ हो जाता। दिन भर खूब सेवा हुई। धन,आभूषण ,वस्त्र आदि चढ़ावे में बहुत कुछ प्राप्त हुआ। गाँव वालों ने चढ़ावे का सारा माल बैल-गाड़ी में भर कर उसके घर पहुँचाया।
वह धनवान बन गया। उसने चोरी करना छोड़ दिया, लोग उसको संत महात्मा मानने लगे। उसके दर्शन के लिए भीड़ उमड़ने  लगी। जीवन भर सुख समृद्धि का आनंद लेता रहा। इसीलिये तो महात्मा तुलसीदास ने कहा है -
               "एक घडी आधी घडी आधी की पुन आध। तुलसी संगत साधु की काटे कोटि अपराध।"

गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

यदुवंशियों की विजय


कालयवन की सेना का संहार कर श्रीकृष्ण और बलराम  जरासंध के सामने से भागते हुए प्रवर्षण   पर्वत  पर चढ़ गए।  जरासंध ने  उनको  पर्वत  पर जलाकर  भस्म कर देना चाहा। इस कारण  उसने पर्वत के चारों तरफ आग लगवा दी। पर्वत धू धू करके जलने  लगा । आग की लपटे शिखर तक  पहुँच गईं।  चारों  तरफ आग ही आग दिखाई दे रही थी। लपटों के बीच फंसे  दोनों भाई शिखर से कूद कर भागते हुए  द्वारिका जा पहुंचे। मथुरा के यादवों  को पहले ही द्वारिका पहुंचा दिया था।

 महाराजा उग्रसेन की छत्रछाया में धन धान्य से परिपूर्ण द्वारिका पुरी में सब  सुख पूर्वक रहने लगे। इस बीच दोनों भाइयों का विवाह हो गया - बलदेव जी का रेवती से और श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ। श्रीकृष्ण ने कई   विवाह किए, जिसका संक्षिप्त  विवरण इस  प्रकार  है :
पहला विवाह - रुक्मिणी के साथ। 
दूसरा विवाह - जांबवान की  कन्या जांबवती से।
तीसरा विवाह -सत्रजीत की पुत्री सत्यभामा   से  .
चौथा विवाह - सूर्य कन्या कालिंदी से।
पाँचवा विवाह-अवन्ति नरेश की पुत्री मित्रविंद से।
छठा विवाह -नग्नजित की कन्या सत्य से।
सातवाँ विवाह -केकय राजकुमारी भद्रा से।
आठवाँ विवाह -वृहत्सेन की पुत्री लक्ष्मणा से।
सोलह हज़ार एक सौ राजकुमारियाँ भौमासुर के कारागार में बंद थीं।   भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर का वध करके उन सब को कैद से छुड़ा दिया था।   उन युवतियों की इच्छा को ध्यान में रख कर उन्हें अपने साथ  द्वारिका ले आए  और सबको अपनी  रानी बनाया।  इस प्रकार श्रीकृष्ण के सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ  थीं।

सुख समृद्धि से ओत-प्रोत उग्रसेन ने एक दिन श्रीकृष्ण को शीश नवकार राजसूय यज्ञ करने की इच्छा व्यक्त की। श्री भगवान ने कहा यादेश्वर ! आपके मन में बड़ा उत्तम विचार आया है।  राजसूय यज्ञ से तीनों लोकों में आपका यश फ़ैलेगा । तदन्तर उग्रसेन ने अंधक, वृष्णि आदि यादवों को सुधर्मा सभा में बुलवाया और पान का बीड़ा रखकर कहा -जो समरांगण में समस्त राजाओं को जीत सके, वह वीर यह बीड़ा चबाए। रुक्मिणी नन्दन  प्रद्युम्न ने  राजा को प्रणाम करके बीड़ा उठा लिया। यह देखकर चारों  तरफ हर्ष  की लहर दौड़ गई।  देवलोक से देवताओं ने वहाँ आकर प्रद्युम्न को विजय प्राप्ति के लिए आशीर्वाद और आवश्यक अस्त्र - शस्त्र प्रदान किए ।

रुक्मिणी नंदन प्रद्युम्न ने झुक कर राजा उग्रसेन, शूर, वसुदेव, बलभद्र, श्रीकृष्ण और गर्गाचार्य को प्रणाम किया। उन सब से  युद्ध नीति और नियमों की सीख ली । उनसे आदेश और आशीर्वाद मिलने के बाद प्रद्युम्न इद्र के दिए हुए रथ पर आरूढ़ हुए और विशाल यादव-सेना लेकर दिग्विजय यात्रा के लिए निकल पड़े। सर्व प्रथम वे कच्छ देशों को जीतना चाहते थे। इस उद्देश्य से दल-बल के साथ उन्होंने कच्छ की राजधानी हालीपुर को ओर कूच किया।

कच्छ देश का राजा शुभ्र उस समय वन में शिकार खेलने के लिए गया था।   उसे जब  यादवों  की सेना के आने का समाचार मिला, तो वह   राजधानी लौट आया। यादवो की विशाल एवं सशक्त सेना को देखकर वह भयभीत हो गया।   अपनी  प्रजा और स्वयं  के हितों  को ध्यान में रखते हुए  वह  प्रद्युम्न के समक्ष उपस्थित हुआ और  मस्तक झुकाकर उनको प्रणाम किया। उसने बहुत से  हाथी, घोड़े, सुवर्ण आदि  भेंट देकर आधीनता स्वीकार कर ली।  प्रद्युम्न ने उसको रत्नों की एक माला उपहार स्वरुप दिया और उसके राज्य पर पुनः उसीको प्रतिष्ठित कर दिया। इस प्रकार प्रद्युम्न ने बिना लड़े ही कच्छ पर विजय प्राप्त कर ली। इसके बाद यादव सेना  कलिंग देश को जीतने के लिए निकल पड़ी।  क्रमशः.......

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

आचरण एवं व्यक्तित्व सार्थक उपदेश हैं।

जो आदत छोड़ी न जा सके उसे 'लत' कहते हैं।बुरी लत लग  जाने पर उससे छुटकारा पाना कठिन हो जाता है।एक बार   एक  लड़के को गुड खाने की  लत लग गयी।अधिकता हानिकारक होती  है।ज्यादा  गुड़   खाने  से  उसका स्वास्थ्य    ख़राब होने लगा।  इसपर किसी ने  ध्यान नहीं दिया, जब  हालात  बेहद  बिगडे और  उसका  चलना   फिरना, उठाना-बैठना  मुश्किल  हो गया,  तो उसके माता-पिता  चिंतित हुए। डाक्टरी इलाज आरम्भ किया।डाक्टरों की तमाम कोशिशों के बाद भी उसकी सेहत में  तनिक भी सुधार नहीं हुआ। डाक्टरों ने सलाह दी कि इसकी गुड खाने वाली आदत छुडवा दो अन्यथा  इसका जीवन नष्ट हो जाएगा।  परिवार वालों ने  लत छुडवाने के अनेक उपाय किये,  किन्तु सफल  नहीं हुए । लड़के ने गुड खाना बंद नहीं किया । थक-हार कर  उसको   एक महात्मा जी  के पास ले गए।सबने  महात्मा जी  को   प्रणाम किया और अपनी समस्या बलाई। महात्मा जी ने उनकी बात  ध्यान से सुनी।  लड़के को  ध्यान से देखा। उसकी पीठ थप-थपाई। कुछ देर मौन रहने के  बाद वे बोले-" इस लड़के को घर  ले जाओ। एक हप्ते बाद  ले आना। " दुखित दम्पति ने बाबा जी को प्रणाम किया और  उदास मन से लड़के  को साथ लेकर  अपने घर लौट आए । 
एक सप्ताह बाद वे पुनः बाबा जी के पास गए।  उनको  प्रणाम किया।  लड़के के उपचार के लिए विनय-पूर्वक प्रार्थना की। महात्मा जी आसन पर विराजमान हुए और लड़के को अपने सामने बैठाया। उसकी आँखों में झाँकते हुए हुए बहुत ही विश्वास और  शांत स्वर में कहा -"बच्चा ! गुड खाना बंद कर दो ।" इतना कहकर बाबाजी  आसन से उठ गये। उनकी आज्ञा पाकर लड़का भी वहाँ से उठ गया और माँ -बाप के साथ  घर चला आया।

लड़के ने गुड खाना छोड़ दिया। धीरे-धीरे  उसकी सेहत में सुधार होने  लगा । थोड़े ही दिनों में वह बिलकुल स्वस्थ हो गया।   यह देखकर लोग आश्चर्यचकित हुए। जो काम तरह तरह की दवाइओं और  युक्तियों से नहीं हो सका ,वह बाबाजी के दो -शब्दों से कैसे संपन्न हो गया? बाबा जी ने अपनी बात पहली बार जाने पर   क्यों नहीं कही ? इतनी छोटी सी बात कहने  के लिए बाबा जी ने  एक हप्ते बाद क्यों बुलाया ? -लोगों के मन में कुतूहल बना रहा। 
जिज्ञासावश लोग बाबजी के पास गए। दंडवत प्रणाम किया। हाथ जोड़कर बाबाजी से कहा -हे महात्मन ! आपकी महान कृपा से लड़के ने गुड खाना छोड़ दिया।  वह अब पूर्णतयः  स्वस्थ   है । महाराज जी ! जो इलाज  दुनिया भर की तमाम  दवाइयों  और कोशिशों के बावजूद संभव नहीं हो सका,  आपके श्रीमुख से निकले दी-शब्दों ने उसे  सहज ही कर दिया। बाबाजी ! हमारे मन में कुतूहल है - आपने  पहली बार आने पर यह बात क्यों नहीं कही ,  एक हप्ते बाद   क्यों बुलाया? "

बाबाजी हँसते हुए  बोले -" प्यारे भक्तो !उस समय  मै भी  गुड खाने का आदी  था। उस  बुराई को त्यागे बिना मैं  दृढ़ता से उपदेश नहीं दे  सकता था।  मेरी दी हुई शिक्षा बेअसर हो  जाती ,  इस लिए मैंने पहले  अपनी आदत  सुधरी। धारी-धीरे   सात दिन में  गुड खाना बंद किया।  तब उस लड़के को गुड न खाने का उपदेश दिया। "

ठीक ही कहा है -वाणी नहीं, आचरण एवं व्यक्तित्व ही प्रभावशाली उपदेश हैं। 



शनिवार, 24 जनवरी 2015

हार्दिक शुभकामनाएँ वसन्त पंचमी की



आज वसंत पचमी है। ऋतुराज वसंत के आगमन का प्रथम दिन। वसंत जाड़े के जकड़न और गर्मी की बेचैनी के मध्य  40 दिनों  का माना जाता है।  माघ शुक्ल पंचमी से आरम्भ होकर फाल्गुन मास की पूर्णिमा 'होलिकोत्सव' पर उसका समापन किया जाता है।  मौसम  करवट बदलने लगता है और   बर्फीली ठंडक बिदाई की अंतिम घड़ियाँ गिनने लग जाती  है।   पतझड़ से ठूँठ हुए वृक्षों में  नई कोपलें निकल आती हैं।हरी हरी नरम कोपलें बहुत  ही  मोहक होती  है।  पौधों में सुन्दर सुन्दर नए फूल खिल उठते हैं।पक्षियों का कलरव, भौरों की गुंजार, रंग बिरंगी तितलियों का मंडराना, सरसों के पीले पीले फूल ,  आम की मंजरियों और फूलों की महक से वातावरण  एक  अद्भुद  अलौकिक  मिठास और मादकता  से भर जाता  है। वसंत ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य निखर उठता है। इस दिन  विद्या की देवी भगवती सरस्वती का जन्म दिन भी है।

 भगवान श्रीकृष्ण को इस उत्सव का इष्टदेव माना जाता है।  यही कारण  है कि ब्रज प्रदेश में यह उत्सव धूम-धाम से मनाया जाता है। राधा कृष्ण का आनंद-विनोद देखते ही बनता है।आज के दिन स्त्रियाँ अक्सर पीले वस्त्र पहनती हैं।

 उत्तर प्रदेश में इस दिन से फ़ाग उड़ाना और फगुआ गायन आरम्भ हो जाता है। उपले एकत्रित करके होलिका निर्माण की शुरुआत भी आज के दिन से  होती है।  जिसपर लकड़ियाँ रखकर ऊँचाई बढ़ाने  का कार्य होली के दिन तक  निरंतर जारी रहता   है और होली वाले दिन जलाकर होलिका दहन किया जाता है।

इस दिन भगवान विष्णु का पूजन, कामदेव का पूजन, माँ सरस्वती का पूजन किया जाता है।  हिन्दू धर्म में इस दिन को बहुत पवित्र माना गया है।यादव समाज की ओर से   इस पवित्र त्यौहार के शुभ अवसर पर  सबको हार्दिक शुभ कामनाएँ।


शनिवार, 27 दिसंबर 2014

सीताराम यादव (भगत जी )



 भगत जी-सीताराम यादव
भगत जी के नाम से विख्यात सीताराम यादव बहुत ही हँसमुख और  मिलनसार व्यक्ति हैं। उनका   जन्म  उत्तर प्रदेश के जनपद सुल्तानपुर (अब अमेठी) ब्लॉक भेंटुआ  के  गाँव शारदान में,  20 अगस्त सन 1949 ई. को ,  एक सुखी एवं संपन्न परिवार में हुआ। सीताराम का  लालन-पालन इनकी  माता मुन्नी देवी की देख-रेख  में हुआ   तथा शिक्षा-दीक्षा   पिता श्री  राम किशुन यादव की देख-रेख में प्राप्त की  । भगत जी ने  प्रारंभिक शिक्षा राजकीय प्राइमरी पाठशाला शारदान से  तथा मिडल स्तर की परीक्षा  जूनियर हाई स्कूल धरई माफी से प्राप्त  की। 

 यादव जी का विवाह  बचपन में ही हो गया था,  क्योंकि उन दिनों छोटी आयु में विवाह कर देने की प्रथा थी।  विवाह के पांच, सात अथवा  नौ  साल  बाद  गौना  लाने की प्रथा थी। उसी प्रथा के अनुसार उनका विवाह भी छः वर्ष की छोटी आयु में  हो गया था  और  उसके  सात साल बाद गौना आया। सौभाग्य वश उनको  गयादेई नामक  सुशील एवं सभ्य पत्नी मिली।    उनके परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटियों  के अतिरिक्त  स्वामीनाथ  नाम का एक परिश्रमी एवं  होनहार  पुत्र भी है। वह   राजा   सुखपाल  इंटर कालेज, तिरहुन्त  में अध्यापक  है। । दोनो  बेटियाँ, जिनके नाम चन्द्रावती और रेखा हैं,  विवाहित है और अपने ससुराल में रहती हैं।

भगत जी की आवाज बहुत सुरीली है।  इस कारण पढाई के दौरान  उनको कविता गायन, अंताक्षरी आदि जनपदीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने का सौभाग्य भी  प्राप्त हुआ। अंताक्षरी की  एक जनपदीय प्रतियोगिता में इनके द्वारा सुनाई गई निम्नलिखित  कविता-पंक्तियों  की बहुत सराहना हुई थी : -

पंकज कोश में भृंग फँस्यो, अपने मन यों करते मनसूबा। 
 होयेंगे प्रात उवायेंगे दिवाकर, मै उड़ि जाब पराग लै खूबा। 
बीच में और की और भई,नहि जानत काल को ब्याल अजूबा।  
आइ गयंद चबाइ गयो, रहिगें मन ही मन को मनसूबा। 


भगत जी का मुख्य व्यवसाय कृषि है।  उसके अतिरिक्त शारदन बाजार में उनका एक  वस्त्रालय भी है।  दिन में  अक्सर  वह अपने उसी वस्त्रालय में बैठे हुए मिलते है।मृदुभाषी एवं मिलनसार होने के कारण उनके पास  हर समय लोगों का आना -जाना लगा रहता है। सादा जीवन और उच्च विचार उनकी प्रमुखता है। विद्वान और  उदार होने के साथ वे  बांके बिहारी,  भगवान श्रीकृष्ण के परम  भक्त भी हैं और इस  कारण अक्सर उनका वृन्दावन धाम आना -जाना लगा रहता है।

भगत जी को  पंडिताई का अच्छा ज्ञान है।  व्याह-शादियों आदि  के लिए शुभ  मुहूर्त विचारने में बहुत ही माहिर माने जाते हैं।    लोगो के दुःख -सुख में  सदैव तत्पर  रहने  वाले  सीताराम जी का  समाज के हर वर्ग में अच्छा  मान-सम्मान है। 

रविवार, 14 दिसंबर 2014

साहिल यादव बने मुनि

12 दिस्म्बर 2014 को चंडीगढ़ के सेक्टर 18 स्थित टैगोर थियेटर के मंच  से ट्रिब्यून माडल स्कूल के सातवीं से दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों ने, वार्षिक समारोह के अवसर पर " स्वर्ण जागृति" नामक  एक  नाटक का मंचन किया। प्रस्तुति बहुत ही सुन्दर थी।   इस ब्लॉग के लेखक राम अवतार यादव के  पौत्र 'साहिल यादव' ने इसमें मुनि (ब्रह्मण देवता ) की एक्टिंग की। एक्टिंग बहुत ही सराहनीय और शानदार थी।  यादव समाज इसके लिए,  इस ब्लॉग के माध्यम से  साहिल यादव को हार्दिक शुभकामनायें  देता है।

जय श्रीकृष्ण !!

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

सुषमा और पवन परिणय सूत्र में बँधे

सुषमा और पवन परिणय सूत्र में बँधे


परमात्मा राम यादव की सुपुत्री कु. सुषमा का शुभ विवाह बंसी लाल यादव के सुपुत्र चि. पवन के साथ 6 दिसंबर 2014 को इंदिरा हॉलीडे होम, सेक्टर 24, चंडीगढ़  में बड़े धूम धाम से संपन्न हुआ।  यादव समाज वर-बधु को शुभ आशीर्वाद देते हुए कामना करता है कि वे सदा  सुखी, स्वस्थ और संपन्न रहें। सदा प्रगति के पथ पर अग्रसर रहे।  परमपिता परमेश्वर उनका जीवन खुशियों से भर दे।

परमात्मा राम यादव पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ में कार्यरत हैं और यूनिवर्सिटी कैंपस में रहते भी हैं।  उनके परिवार में उनकी  पत्नी, दो पुत्र, एक पुत्री , एक पुत्र- वधू  के अतिरिक्त दो छोटे-छोटे प्यारे-प्यारे नन्हें-मुन्ने पौत्र भी हैं।  छोटा बेटा मनोज कुमार अविवाहित है।

उनके   परिवार का प्रत्येक सदस्य   हँसमुख, व्यवहार कुशल , शिक्षित एवं बहुत ही  मिलनसार  है।  सरकारी काम काज और अपने निजी कार्यों  को बखूबी निभाते हुए,  वे सामाजिक कार्यों में भी  बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।  चंडीगढ़ की यादव सभा के प्रतिष्ठित सदस्य हैं। चंडीगढ़ के यादव समाज में उनका बहुत मान सम्मान है।

जय श्रीकृष्ण !!


शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

नोबेल शांति पुरस्कार 2014-देश के लिए यह गर्व की बात



2014 के लिए नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा कर दी  गई है। इस बार  यह पुरस्कार भारत के कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई को संयुक्त रूप से प्राप्त हुआ है।  दोनों बच्चों के अधिकारों के लिए काम  रहे हैं।

 कैलाश सत्यार्थी भारत में 'बचपन बचाओ ' नामक  एक गैर सरकारी संगठन (NGO)  चला रहे है जो श्रम और बाल तस्करी, बंधुआ मजदूरी आदि  में फँसे बच्चों को मुक्त कराने का कार्य करता है। सत्यार्थी के बारे में कहा जाता है कि कई बार  उन्होंने जीवन को दाँव पर लगाकर 'बचपन बचाने' का कार्य किया है। 

पुरस्कार की घोषणा का समाचार मिलते ही हिंदुस्तान भर  में खुशी की लहर दौड़ गई। सत्यर्थी जी को देश भर से बधाइयाँ मिलने लगी है।  राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने  भी उन्हें हार्दिक बधाई भेजी है।  देश के लिए यह बड़े गर्व की बात है। 

कैलाश सत्यार्थी का जन्म 11 जनवरी 1954 को विदिशा मध्य प्रदेश में हुआ। पहले वे इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे किन्तु  बाद में बाल अधिकारों के लिए नौकरी छोड़ दी थी। 

पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई लड़कियों की पढाई के लिए संघर्षरत हैं।  मलाला मात्र 17 साल की हैं।इस कार्य के लिए उस पर  जान लेवा हमले भी हुए। फिर भी उसने  हिम्मत नही  हारी और अपना  संघर्ष नहीं छोड़ा।  इस तरह उसने  साबित कर दिया कि बच्चे और युवा भी समाज की स्थिति को सुधारने में महत्वपूर्ण  योगदान दे  सकते हैं।  

यादव समाज की ओर से  कैलाश सत्यार्थी जी और मलाला यूसुफजई  को हार्दिक बधाई !






रविवार, 5 अक्तूबर 2014

सतीश कुमार यादव- हार्दिक बधाई !!


 उत्तर प्रदेश के जिला  बुलंदशहर, गाँव पचौता  के निवासी सतीश  कुमार  यादव को बहुत बहुत हार्दिक बधाई ! सतीश कुमार ने इंचियोन   एशियन गेम्स में भारत की झोली में कांस्य पदक डालकर न केवल देश, प्रदेश, पैतृक जिले, गाँव,  निकट सम्बन्धियों और कुटुंम्ब जनों   का नाम रोशन किया है , बल्कि  यदुवंशियों का  भी गौरव बढ़ाया है। यह पदक उनको मुक्केबाजी में प्राप्त हुआ है।  जीत की खबर मिलते ही सब जगह खुशी की लहर दौड़ गई। जश्न मनाया  जाने लगा।  


सतीश कुमार  गाँव पचौता के रहने वाले किरनपाल यादव के पुत्र हैं। बचपन से ही उनकी खेल में बहुत रूचि थी  किरनपाल यादव के चार पुत्र हैं। सतीश कुमार यादव  दूसरे नंबर के मझले पुत्र  हैं। सतीश की माता जी का नाम गुड्डी देवी और  पत्नी का नाम सरिता देवी है।सतीश यादव सेना में कार्यरत हैं।  इनके बड़े भाई जय प्रकाश भी  सेना में ही  है।  इनसे छोटे दोनों भाई ,जितेंद्र और हरीश सेना में भर्ती होने की तैयारी कर रहे हैं।  उनकी जीत से परिवार के लोग बेहद खुश हैं।  सबको हार्दिक बधाई !

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

जीवित है रावण

बुराई पर अच्छाई की विजय -विजयदशमी


तुलसीदास कृत श्रीरामचरित मानस के लंका काण्ड में एक  कथा आती है।  कथा उस समय की है जब श्रीराम-रावण युद्ध निर्णायक स्थिति में पहुँच चुका  था।  युद्ध के मैदान में श्रीराम और रावण आमने सामने थे । सहायतार्थ दोनों पक्षों की सेनाये भी  डटी हुई थीं। एक दूसरे पर भीषण प्रहार कर रहे थे।  मायावी शक्तियों का सहारा लेकर रावण ने श्रीराम की सेना में हाहाकार मचा रखा था।इस दौरान एक ऐसा समय आया जब -


                   गहि भूमि पारयो लात मारयो बालिसुत प्रभु पहिं गयों।
                   सम्भारि उठि दसकन्धर शब्द कठोर रव गर्जत भयो।
                   करि दापि  चापि  चढाइ दस  संधानि सर  बहु  बरसहीं।
                  किये सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषहीं।

अंगद जी ने रावण के पैर पकड़ कर धरती पर गिरा दिया।  उसको लात मारकर  श्रीराम के पास चले गए। इस बीच रावण संभल कर उठा और भयंकर शब्दों में गर्जना करने लगा। बड़े घमंड से एक साथ (अपने बीस हाथों से)  दस धनुष पकड़ा,   उनमें वाण संधान किया और  एक साथ बहुत से वाणों की वर्षा करने लगा।  इस प्रकार उसने  रामादल के सब  योद्धाओं को घायल कर दिया। अपने बल को देखकर वह (रावण) बहुत प्रसन्न हुआ। तब-

              तब रघुपति रावन के, सीस भुजा सर चाप।
              काटे बहुत बढ़ पुनि, जिमि तीरथ कर पाप।

श्रीरघुनाथजी ने (वाण चलाकर ) रावण के सिर, भुजा और उसके धनुष-वाण सब काट डाले।  लेकिन वे सब  न  केवल  पुनः उसी रूप में प्रकट हो गए,  बल्कि उससे बढ़कर ज्यादा संख्या में उत्पन्न हो गये , जैसे तीरथ में किये हुये पाप बढ़ जाते हैं।

श्रीराम द्वारा बार बार सिर और भुजा काटने पर भी लंकापति रावण नहीं मरता -

                काटे सिर भुज बार बहु, मरत न भट लंकेस। 
                प्रभु क्रीडत सुर सिद्ध मुनि, व्याकुल देखि कलेस। 

भगवान श्रीराम तो लीला कर रहे थे, किन्तु सिद्ध,मुनि और देवता क्लेश देखकर व्याकुल हो रहे थे।

               काटत बढ़हि सीस समुदाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई। 
              मरत न रिपुश्रम भयउँ विसेषा। राम विभीषन तनु तब देखा। 

काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता था, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ जाता है। अधिक परिश्रम करने पर भी शत्रु नहीं मर रहा था, तब ( रहस्य जानने के लिये)  श्रीरामजी ने विभीषण की ओर देखा। तब  रहस्य बताते हुए विभीषण जी कहते हैं -
   
              नाभिकुण्ड पीयूष बस जाके।  नाथ जिअत रावनु बल ताके। 
              सुनत विभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला। 

हे नाथ! रावण की  नाभिकुण्ड में अमृत भरा हुआ है, उसी के बल से वह जीवित रहता है। विभीषण के यह वचन सुनकर श्रीराम प्रसन्न हो गए और कराल  वाण हाथ में ले लिया। और -

            खैंचि सरासन श्रवन लगि, छाँड़े  सर इकतीस। 
            रघुनायक सायक चले, मानहु काल फनीस।  

कान तक धनुष खींचकर इकत्तीस  वाण छोड़े। श्रीरघुनाथजी के वाण ऐसे चले, मानो काल रुपी साँप हों। 

            सायक एक नाभि सर सोखा।  अपर लगे भुज सिर करिरोषा। 
            लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा। 

एक वाण से नाभिकुण्ड के अमृत को सुखा डाला।  बाकी तीस वाण क्रोध पूर्वक सिरों और भुजाओं में जा लगे। वाण  सिरों और भुजाओं को ले चले। बिना सर और भुजाओं का शरीर पृथ्वी पर नाचने लगा।  

अंततः भगवान  श्रीराम  दुष्ट, पापी, राक्षस,  आतताई रावण को  मारने में सफल हुए।  देव, महादेव, ब्रह्मा जी आदि सब प्रसन्न हुये।  पूरे ब्रह्माण्ड में जय जय की ध्वनि छा  गई। देवता मुनिगण सब फूल बरसाने लगे।  

प्रभू श्रीराम ने लंकापति रावण को मार दिया।  उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी।  लेकिन उसकी प्रजाति आज भी जीवित है।आज भी असंख्य रावण भूमि पर विद्यमान है।  हत्या, चोरी, डकैती , बेईमानी,लूट-खसूट, घूसखोरी, बलात्कार आदि  सब उसकी भुजायें और सिर हैं।सरे आम सरे बाजार घूमते  है।  दिन दहाड़े  माताओं-बहनो का अपहरण करते है। मनमानी करते  है  दहाड़ते  है   चीखते   चिल्लाते  है,  डराते  है, ठठा कर  हँसते   है।  एक को मारो,  दस पैदा हो जाते है।  उसके खून के छींटे जहाँ पड़ते है, वहीं दस-बीस नए रावण उत्पन्न  हो जाते हैं। लाख कोशिश करने के बावजूद वे मर नहीं  रहे  है।  इन रावणों को मारने के लिए सचमुच श्रीराम प्रभु के अवतार लेने की  आवश्यकता है, जो इनकी नाभि कुण्ड में वाण मार कर अमृत को सुखा दे।  इनकी जड़ सुखा दे, जिससे पुनः अंकुरित न हो सके।मनुष्य के कल्याण हेतु  भगवान श्रीनारायण अवश्य  अवतार लेंगें।  मन में है विश्वास। 

जय श्रीराम !

विजयदशमी के पावन पर्व पर आप सभी को  हार्दिक बधाई । 


             


         



           

         









बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

शुभ दिन है-2 अक्टूबर

भारत एक विशाल एवं  महान देश है। समय समय पर यहाँ ऐसे  उज्ज्वल नक्षत्रों  का उदय होता रहा है,जिनके प्रकाशपुंज से देश का कोना कोना चमक उठा। ऐसे महापुरुषों  का जन्म  न केवल पौराणिक कथाओं तक सीमित हैं,  बल्कि  इतिहास के पन्नो को पलट कर देखें   तो आधुनिक युग में ऐसे अनेक  युगपुरुष मिलेंगें जिनके नाम  स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं। आधुनिक समय के  ऐसे महान पुरुषों में महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री का नाम अग्रिम पंक्तियों में आता  है। महात्मा गांधी ने जहाँ वर्षों से  गुलामी का दंश झेल रही    भारतमाता  को  आज़ाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वहीँ लालबहादुर शास्त्री ने 1965 के  भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को परास्त करके भारत माता की  मानमर्यादा  और गौरव में वृद्धि की। संयोगवश इन  दोनों महान विभूतियों का जन्म 2 अक्टूबर को हुआ था। इसीलिए तो कहते है -

                                    आज का दिन शुभ दिन है,
                                    आज का दिन बड़ा महान।
                                    आज के दिन दो फूल खिले थे, 
                                    जिससे महका हिंदुस्तान। 

2 अक्टूबर  का दिन हम भारतीयों के लिए बहुत  शुभ और महान  है। इस  दिन  दो महान विभूतियों ने जन्म लिया था,  जिन्होंने  भारत माँ की पावन बगिया में सुगंध बिखेरे थे। 

महात्मा गांधी का जीवन परिचय -
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात प्रान्त के पोरबंदर नामक स्थान पर   हुआ था।इनके पिता का नाम करमचंद गांधी और माता का नाम पुतली बाई था।महात्मा गांधी के बचपन का(पूरा) नाम मोहनदास  करमचंद गांधी था।बाद में सत्य और अहिंसा का पालन करने  के कारण महात्मा नाम से विख्यात हुए।उन्हें बापू नाम से भी जाना जाता है।  इनका विवाह 14 वर्ष की छोटी आयु में  कस्तूरबा माखनजी  से हुआ था। कस्तूरबा  करमचंद की चौथी पत्नी थी।  उनकी तीन पत्नियों  प्रसव के समय गुजर गईं  थीं। कस्तूरबा के चार पुत्र  हुए, जिनके नाम थे - हरिलाल, मणिलाल, रामदास और  देवदास। 

महात्मा गांधी बचपन के संस्कारों के प्रभाव से सत्यवादी, समदृष्टा और स्वाभिमान प्रिय व्यकतित्व के धनी बने। सत्य अहिंसा और सादगी को अपना धर्म मानने वाले महात्मा जी स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नेता बने। 1921 के 'असहयोग आंदोलन', 1930  में दांडी मार्च और 1942 के  'भारत छोडो आंदोलन' में गांधी जी ने स्वतंत्रता सेनानियों का सफल  नेतृत्व किया और   ख्याति प्राप्त की । उनके अथक प्रयासों से और  स्वतंत्रता सेनानियों के अनगिनत  बलिदानों की बदौलत1947 में 15 अगस्त की मध्य रात्रि को भारतीय स्वतंत्रता की घोषणा हुई। महात्मा जी को 'राष्ट्रपिता' होने का गौरव प्राप्त हुआ। 

आज़ादी के एक वर्ष के भीतर 30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा के दौरान नाथूराम गोडसे नामक एक व्यक्ति ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी।प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनके जन्म दिवस को 'गांधी जयंती और अहिंसा दिवस ' के रूप में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। 

 लाल बहादुर शास्त्री का जीवन परिचय :
जन्म तिथि -           2  अक्टूबर 1904 . 
जन्म स्थान -           मुगलसराय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश। 
प्रधानमंत्री   -            9 जून, 1964 से 11 जनवरी 1966 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। 
माता का नाम-          राम दुलारी देवी। 
पिता का नाम -         मुंशी शारदा प्रसाद। 
जीवन साथी  -          ललिता। 
संतान - कुसुम, सुमन (दो पुत्रियाँ )और हरिकृष्ण, अनिल,सुनील, अशोक (चार पुत्र ) 
म्रत्यु -   11 जनवरी, 1966   को रात्रि में रहस्यमय परिस्थितियों में ताशकंद में।  


27 मई 1964 को  स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का देहांत हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि वाले लालबहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री बनाया गया।उनकी निष्ठा और प्रतिभा की बदौलत उन्हें आज़ाद भारत का द्वितीय  प्रधानमंत्री होने  का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने 9 जून 1964 को पदभार ग्रहण किया। उनके क्रियाकलाप सैद्धांतिक न होकर व्यवहारिक थे। उनके शासनकाल के  दौरान देश में अन्न की अत्यंत कमी हो गई थी।उपज बढ़ाने के  लिए उन्होंने ने किसानों को बहुत प्रोत्साहित किया। भारतीय सैन्य शक्ति के बल  पर उन्होंने पाकिस्तान पर एक शानदार विजय हासिल की थी।  इन दोनों घटनाओं से प्रेरित शास्त्री जी ने "जय जवान जय किसान " का नारा दिया था। यह लोकप्रिय नारा आज भी हर भारतीय की जुबान पर रहता है। 

पाकिस्तान को अमेरिका का वरदहस्त हासिल था।  अमेरिका पाकिस्तान को घातक  लड़ाकू हथियार सप्लाई करता था।  पाकिस्तान के पास घातक लड़ाकू  हथियारों का बड़ा जखीरा इकट्ठा हो गया था। इससे वह अपने आप को क्षेत्र की  'बड़ीशक्ति' होने का वहम पाले हुए  था।अपने मुकाबले भारत को कुछ नहीं समझता था।  इसी घमंड में चूर 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। शास्त्री जी ने बहुत  समझदारी से  काम लिया।  हिम्मत एवं दृढ़ता का परिचय देते हुए  इस युद्ध में पाकिस्तान को बुरी तरह परास्त किया। भारत की बहादुर फ़ौजों  ने पाकिस्तानके  बहुत बड़े  भूभाग कब्ज़ा कर  लिया और वहाँ तिरंगा लहरा दिया। 

अमेरिका सहित अंतर्राष्‍ट्रीय  बिरादरी को भारत की यह जीत फूटी आँखों भी नहीं सुहाई। साजिस करके ईर्षालु देशों ने शास्त्री जी को ताशकंद आमंत्रित करके और  दबाव डालकर , भारत और पाकिस्तान के बीच एक संधि करवा दी। इसे 'ताशकंद समझौते' के नाम से जाना जाता है।   इस समझौते में  अन्य बातों के अलांवा भारत को पाकिस्तान का जीता हुआ भूभाग लौटने की शर्त भी शामिल थी।   समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी, 1966   को रात्रि में रहस्यमय परिस्थितियों में ताशकंद में उनकी मृत्यु हो गई । 

शास्त्री जी को सादगी, देशभक्ति, ईमानदारी और बहादुरी के लिए आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक स्मरण करता है।  उन्हें मरणोपरांत 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 






शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

गुरु बिन ज्ञान न होई।



 बोलचाल की आम  भाषा में शिक्षा का अर्थ 'सीखना' और शिक्षक का अर्थ 'सिखाने वाला' माना जाता है। शिक्षक (गुरु) क्या देता है? क्या सिखाता  है? शिक्षक ज्ञान देता है। वह  मनुष्य की जीवन रुपी  नैया को सुचारू रूप से चलाने और उसे सुगमता से  पार लगाने के अच्छे-अच्छे  गुण सिखाता है।गुरु के बिना जीवन का अर्थ नहीं। संसार में गुरु ही कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर करते हैं। गुरु प्रकाश स्वरुप हैं। वे   मनुष्य को अंधकार से बाहर निकालते हैं।  जिस तरह पानी के बिना नदी का  कोई महत्व नहीं होता।  वैसे  ही  गुरु के बिना जीवन  अर्थहीन हो जाता है। 

संसार में शक्ति की पूजा होती है। शक्ति कहाँ से और कैसे प्राप्त होगी? इससे सम्बंधित अंग्रेजी  में एक कहावत है- " Knowledge is power"  ज्ञान ही शक्ति है। अर्थात  शक्ति का  स्त्रोत ज्ञान है।ज्ञान कहाँ से प्राप्त  होगा ?  ज्ञान का स्त्रोत गुरु है -"गुरु बिन ज्ञान न होई।" गुरु मनुष्य के अन्दर  ज्ञान भरता है, उस ज्ञान रुपी पंख के सहारे  मनुष्य  सफलता के शिखर  को  चूमने  में सफल होता है।  गुरु शिष्यों की   त्रुटियों को दूर करने के  उपाय करता है।  जैसे कुम्हार घड़े को सुन्दर बनाने के लिए गढ़ गढ़ कर उसके खोट निकलता है ,ठीक  उसी प्रकार गुरु शिष्यों के जीवन को सँवारने  के लिए उन्हें   घुमा-फिरा कर तरह तरह से गढ़ता है, उनके खोट निकलता है।  इस सन्दर्भ में गुरु के महत्त्व को वर्णित करते हुए किसी कवि ने ठीक ही लिखा है   -

             " गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है,गढ़ि  गढ़ि काढ़े खोट। 
                   अंतर हाथ पसारि  के,  बाहर मारे चोट। "

आध्यात्मिक जीवन में  वर्णन आता है कि यदि कोई परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, तो  उसे इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं  है।  उसे गुरु की शरण में जाना चाहिए।  परमात्मा को प्राप्त करने  का रास्ता  केवल  गुरु ही जनता  है। गुरु ही भगवान से भेंट करा सकता है, उनके दर्शन करा सकता है। मात्र गुरु  ही भगवान की पहचान करा सकता है।  इसलिए प्रथम वंदना गुरु की होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में  कबीर साहेब कहते है -
                  "गुरु गोविन्द दोउ खड़े , काके लागूँ  पाँय !
               बलिहारी गुरु आपने , जिन गोविन्द दियो  दिखाय !"

भावार्थ : "गुरु और गोविन्द दोनों एक साथ खड़े है , पहले किसके श्री चरणों में प्रणाम करू ? हे गुरुदेव ! आप धन्य हैं। आपकी कृपा से ही  मैं श्रीगोविन्द (भगवान ) से मिल सका हूँ । इसलिए मैं आपके ही श्री चरणों में पहले प्रणाम करता हूँ।" गुरु की महिमा का वर्णन करते  हुए  रामचरित मानस में महात्मा तुलसीदास जी लिखते हैं -

          "बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।  सुरुचि सुबास सरस अनुरागा। 
           अमिय मूरमय चूरन चारू।  समन सकल भव रुज परिवारू।"

भावार्थ :"मै उन गुरुदेव के चरण की वंदना करता हूँ , जो सुन्दर स्वादिष्ट तथा अनुराग रुपी रस से पूर्ण है।  वह अमृत बूटी का चूर्ण है , जिससे संसार रुपी रोगों के परिवार का नाश हो जाता है।"

              "श्रीगुरु पद नख मणिगन जोती । सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती। 
               दलन मोह तम सो सुप्रकाशू। बड़े भाग्य उर आवइ जासू।"

भावार्थ :"श्री गुरुदेव के चरणों की नख-ज्योति मणि-समूह के प्रकाश के समान है। उनके स्मरण करते ही ह्रदय में दिव्य दृष्टि हो जाती है।  वह मोह रूपी  अन्धकार को दूर कर सुन्दर प्रकाश करने वाली है। वह बड़ा ही भागयशाली है जिसके ह्रदय में वह प्रकाश आता है।" गुरु को ब्रह्मा, विष्णु महेश और साक्षात परब्रह्म स्वरुप माना  गया है -

          "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः,
           गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः "

अर्थात गुरुदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव स्वरूप हैं, साक्षात परब्रह्म स्वरुप हैं। उन्हें  बारम्बार  नमस्कार है |

मनुष्य का कर्तव्य है क़ि वह सदैव सच्चे ह्रदय से गुरु   का आदर  करे। इस   सम्बन्ध में भारतीय ऋषि परंपरा के महान  पुरुष आचार्य चाणक्य का एक श्लोक है -
     
                   एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाभिवन्दति .
                      श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते  

भावार्थ है कि एक अक्षर का ज्ञान देने वाला गुरु भी सम्मानीय है।  जो व्यक्ति उसका आदर  नहीं करता, वह सौ बार जन्म लेने के बाद भी नीच योनि  ही  प्राप्त करता है। 
गुरु शिष्य परम्परा (गुरु-शिष्य सम्बन्ध) भारतीय संस्कृति का एक अहम और पवित्र  हिस्सा है। यह पवित्रतता सदा बनी रहे, इसी  मनोकामना के साथ  आज "शिक्षक दिवस" के  शुभ अवसर  पर आप सब को  हार्दिक बधाई।".
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सोमवार, 18 अगस्त 2014

जय कन्हैया लाल की





यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। 
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे। 

जब जब धरती पर धर्म का पतन  होता है ,  अन्याय और अत्याचार बढ़ने लगता है,  अनीति और अधर्म फलने-फूलने  लगता है,  तब तब  भक्तो का उद्धार करने,  दुष्टों का विनाश करने और धर्म की पुनःस्थापना हेतु  भगवान  अवतार धारण करते है।


द्वापर युग  के अंतिम चरण   की बात है।  पृथ्वी पर दुष्ट आतताई राजाओं ने आतंक फैला रखा था। उनके अत्याचारों से त्रस्त लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। धर्म का नाश हो चुका  था।  अधर्म फल-फूल रहा था। अत्याचार इतना बढ़ गया था  कि उसका  बोझ  उठाने में  पृथ्वी असमर्थ हो गई  थी। किंकर्तव्यविमूढ़ वह ब्रह्माजी के पास गई। उस समय वह बहुत घबराई हुई थी और करुण स्वर में रँभा थी। नेत्रों से आँसू  बह  बह कर मुख पर आ रहे थे।   पृथ्वी पर  बढ़ रहे अधर्म से    ब्रह्माजी  को अवगत कराया।   पृथ्वी  की  करुण कथा सुनकर ब्रह्माजी  बहुत दुखी हुए उन्होंने संसार से  शीघ्र ही  अत्याचारियों को मार भागने  का आश्वासन दिया। 

पृथ्वी को साथ लेकर ब्रह्माजी देवलोक के अन्य   देवताओं के पास  गए।  उनसे इस विषय में मंत्रणा  की। समस्या  गंभीर थी। निवारण की युक्ति और शक्ति श्रीनारायण के अतिरिक्त किसी अन्य के  पास  नहीं है -ऐसा विचार करके सबने प्रभु नारायण के पास जाने  की इच्छा प्रकट की। तब ब्रह्मा जी   सबको साथ  लेकर  श्रीनारायण के पास पहुंचे। पृथ्वी  भी  उनके साथ गई। उस समय श्रीनारायण    क्षीर सागर में  शयन कर रहे  थे। उनको सोया  हुआ  देखकर, ब्रह्माजी और अन्य  देवगण वहीं आसन लगाकर  बैठ गए और अंतर्यामी  परमपुरुष प्रभु की स्तुति करने लगे।  स्तुति करते  करते ब्रह्माजी  समाधिस्त हो गये।    समाधिस्त  अवस्था में उन्हें  एक  ध्वनि सुनाई पड़ी।यह  श्रीनारायण द्वारा प्रेषित एक  देववाणी थी, जिसके माध्यम से प्रभु ने देवताओं के पालन हेतु आवश्यक आदेश दिए थे।  ब्रह्माजी समाधि त्याग जागृत हुए।   देववाणी से अवगत कराते हुए उन्होंने देवताओं को  कहा-"हे प्रिय देवतागण! मैंने  परमपिता नारायण की वाणी सुनी है।उसे   आप लोग भी सुन लो  और नारायण की  इच्छा का  पालन करे।  पृथ्वी के कष्टों के बारे में  उन्हें  पहले से ही सब   ज्ञात है। वे शीघ्र ही  यदुकुल में वसुदेव के घर देवकी की कोख से   जन्म लेंगे। उस समय आप सभी   देवगणों को  अपने अपने अंश से  ग्वाल-बालों  और गोपियों के रूप में वहाँ जन्म लेने होंगे। भगवान शेष भी  उनके अग्रज के रूप में अवरित होंगे।  तब आप सबके सहयोग से  श्रीनारायण  दुष्टों का संहार करके पृथ्वी का भार हल्का करेंगें। "

भगवान श्रीकृष्ण के अवतार को भली-प्रकार समझने के लिए उनसे सम्बंधित वंशावली से अवगत होना आवश्यक है।  श्रीमदभागवत महापुराण में वर्णन आता है कि ययाति-के जयेष्ट पुत्र राजा यदु  हुए। उनके सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु. नामक चार यशस्वी  पुत्र हुए। श्रीकृष्ण और दुराचारी  कंस  क्रोष्टा के कुल में उपन्न हुए  थे।  इस कुल  की  क्रमागत वंशावली  इस प्रकार है- क्रोष्टा के पुत्र का नाम वृजिनवान था।वृजिनवान  के  पुत्र नाम  स्वाहि, स्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ, चित्ररथ का शशबिंदु ,शशबिंदु का पृथुश्रवा, पृथुश्रवा का ज्यामघ, ज्यामघ का विदर्भ, विदर्भ का क्रथ, क्रथ का कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निवृति,निवृति का दर्शाह, दर्शाह का व्योम, व्योम का जीमूत, जीमूत  का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ, नवरथ का दशरथ, दशरथ से शकुनी, शकुनी से करम्भी, करम्भी से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश, कुरुवश से अनु हुए.  अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु के  सात्वत नामक पुत्र  हुआ।  सात्वत के सात पुत्र  हुए जिनके नाम है - भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृद्ध, अन्धक और महाभोज।
                                                    

सात्वत के सात पुत्रों में  एक   का नाम था अन्धक ।  कई पीढ़ियों के बाद  अंधक के कुल में  पुनर्वसु नामक  राजा हुए।  पुनर्वसु के आहुक नाम का एक  पुत्र और आहुकी नाम की एक पुत्री  हुई।  आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए.  उग्रसेन की पत्नी  का नाम पवन रेखा था। कंस उसी पवन रेखा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। आहुक  के  दूसरे पुत्र   देवक के चार पुत्र  और सात पुत्रियाँ हुई। सात पुत्रियों में एक का नाम  देवकी था।  वृष्णि वंश में शूरसेन नामक राजा थे। उनके  पुत्र  का नाम वसुदेव था। देवकी सहित देवक की सातों  कन्याओं का विवाह  वसुदेव के  साथ हुआ था। मथुरा उन दिनों यदुवंशियों के अधीन था और  उग्रसेन वहां के महाराजा थे। सम्पूर्ण मथुरा राज्य कई मण्डलो में  विभक्त था और प्रत्येक मंडल का एक राजा  होता था. वह  महाराजा के अधीन  हुआ करता था। माथुर और  शूरसेन  मंडल  में यदुवंशी  राजा शूरसेन  थे। 

 देवकी कंस के चाचा  देवक की पुत्री थी। इस प्रकार  वह  कंस की चचेरी बहन थी। कंस   उससे  बड़ा स्नेह रखता था। अपनी इस प्रिय बहन का  विवाह उसने शूरसेन के पुत्र  वसुदेव के साथ बहुत धूम-धाम से  किया।  .विवाहोपरांत  कंस  देवकी को  रथ पर बैठा कर उसकी ससुराल पहुँचाने  जा रहा था।   स्नेहवश वह स्वयं ही रथ हांक रहा था।  उसके साथ  दहेज स्वरुप प्रदत्त अनेकों स्वर्ण जडित रथ,सोने के हारों से अलंकृत  हाथी, घोड़े आदि तथा सुन्दर आभूषणों से विभूषित सुकुमारी दासियाँ भी जा रही थीं।  उस समय बारात-बिदाई की अनुपम छटा  देखते ही बनती थी।   सब कुछ बड़े सुन्दर और व्यवस्थित ढंग से चल रहा था कि मार्ग में अचानक आकाशवाणी  सुनाई दी।   देववाणी ने  कंस को संबोधित करते हुए कहा-" हे मूर्ख   कंस! तू जिसे इतने प्रेम से  रथ में बैठाकर पहुँचाने जा रहा है,  उसीके आठवें पुत्र  के हाथों तेरी मृत्यु निश्चित है.".

इस देववाणी  सुनकर कंस क्रोधित हो गया।  अपनी बहिन की चोटी पकड़ कर उसे  रथ से नीचे खींच लिया  और  तलवार से  उसका सिर काटने के लिए तैयार हो गया।  यह   देखकर महात्मा वसुदेव जी मन में विचार आया   कि कंस तो  क्रूर है ही।  पाप कर्म करते करते वह  निर्लज्ज भी हो गया है।   इस समय   यदि मै भी क्रोध करूंगा तो सारा काम बिगड़ जायेगा।   इस समय अनुनय-विनय, क्षमा याचना   करना ही उचित होगा।    यह सोचकर वसुदेव जी कंस के क्रोध को   शांत  करने के लिए   हाथ जोड़ कर बोले-" हे राजन!  आप जैसा बली संसार में   कोई और नहीं है।  सब आपकी छत्र-छाया में बसते है। . बड़े-बड़े भूपति और  शूरवीर आपकी वीरता की प्रशंसा करते है। . ऐसे  शूरवीर को अबला  पर शस्त्र प्रहार करना शोभा नहीं देता। अपनी ही  प्रिय और निर्दोष बहिन की हत्या करना तो  इस लोक में और परलोक में सर्वत्र  निंदनीय और  महापाप है।   हे राजन!  यह संसार नश्वर है।  मृत्यु अटल सत्य है.  यहाँ जो जन्म लेता है,  उसका नश्वर शरीर, कभी न कभी,  उसका  साथ अवश्य छोड़ देता है।  प्रत्येक जीवात्मा को अपने  कर्मों के अनुसार फिर से  नया शरीर प्राप्त होता है तब वह पहले शरीर के द्वारा किये गये सभी  कर्मों को भूल जाता है और  नया शरीर धारण करके इस संसार में पुनः जन्म लेता ह। अपना कल्याण चाहने वालों को  किसी से वैर नहीं करना चाहिए।  कंस!  यह आपकी छोटी बहिन है और अभी बच्ची है। यह आपकी कन्या के समान है और अभी अभी इसका विवाह हुआ है।.  ऐसे  में इसका वध करना कहाँ तक उचित है?. आप  इसे छोड़ दीजिय।"

 
वसुदेव जी ने कंस को समझाने का बहुत  प्रयास  किया,  किन्तु वह  क्रूर अन्यायी तो अपने संकल्प  पर अड़ा  था।.  उसका हठ देखकर  वसुदेव जी सोचने लगे कि बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी बुद्धि-कौशल से अंतिम क्षण तक मृत्यु को टालने का प्रयास करना चाहिए। .इस समय जिस  प्रकार भी देवकी के प्राणों की रक्षा हो वही उपाय करना उचित होगा।  इस भांति मनमे विचार कर उन्होंने  कंस से कहा-" महाराज! देवकी के हाथों तो आपकी मृत्यु होगी नहीं। उससे तो आपको कोई भय है ही नहीं। आकाशवाणी के अनुसार आपकी मृत्यु देवकी के आठवें पुत्र से होगी। किन्तु मैंने निश्चय किया है कि देवकी के गर्भ  से  उत्पन्न सभी पुत्र आपको   सौप दूंगा।  यह मेरा वचन है।  अब आपको चिंतित और भयभीत  होने का कोई कारण नहीं है।" वसुदेव की यह बात कंस ने मान ली और देवकी का वध नहीं किया।  वह उदास मन से अपने महल को लौट गया। वसुदेव जी भी देवकी के साथ अपने घर चले गए।   

समय आने पर देवकी के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ।  कंस को दिए  वचन  का पालन  करते हुए  वसुदेव जी ने उसे  कंस के हवाले कर दिया। उस  बालक के सौन्दर्य को देख कर  कंस  मुग्ध हो गया।  साथ ही  वसुदेव को अपने वचन के प्रति  निष्ठावान देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ।  बालक को लौटाते हुए उसने वसुदेव से  कहा -"आप इस नन्हे सुकुमार  को अपने घर ले जाइये।  इससे मुझे कोई डर नहीं है।  आकाशवाणी के अनुसार मेरी मृत्यु तो देवकी के  आठवें पुत्र से  से होगी।  फिर मैं इसका वध क्यों करूँ?"   "जैसी आपकी इच्छा"- कहकर वसुदेव जी उस बालक को लेकर आशंकित मन से  अपने घर  लौट गए. 

जो तुम्हारी सेवा में लगे हैं वे भी देवता ही हैं।   दैत्यों के अत्याचार से पृथ्वी का भार बढ़ गया है। इसलिए देवताओं की ओर से उनको (दैत्यों को)  मारने का उपाय  किया जा रहा है। ये सभी तुम्हारे शत्रु हैं।   तुम्हे मारने के लिए   सभी देवगण  मिलकर षड्यंत्र  रच रहे है।   देवकी के आठवे गर्भ से भगवान विष्णु अवतरित होंगे, यह निश्चित है।  परन्तु उसका कौन  पुत्र   आठवां होगा? यह कोई नहीं जानता।  उसका पहला पुत्र  आठवां हो सकता है , दूसरा पुत्र आठवां हो सकता है  अथवा तीसरा,चौथा, पांचवा   आदि में से कोई भी आठवां हो सकता है।"   नारदजी कंस को समझाने के लिए उदाहर  स्वरुप  एक कमल का फूल ले आए जिसमे गोलाकार  आठ पंखुड़ियां थी।  उन्होंने बारी-बारी प्रत्येक पंखुड़ी से गणना  आरंभ करके उसको यह दिखाया क़ि किस प्रकार हर पंखुड़ी  अंतिम और आठवी बनती है।.इसी प्रकार देवकी का कोई भी पुत्र आठवां हो सकता है। नारद जी ने  येसा कह कर कंस  को  भयभीत  कर दिया  और स्वयं घर वापस चले  गये।   कंस ने तत्काल अपने सैनिकों को भेजकर,  बालक सहित  वसुदेव और देवकी को अपने पास बुला लिया। उसने   देवकी की गोद से  बालक को छीन लिया।   उसे   पृथ्वी  पर  पटक कर मार डाला।  वसुदेव और -देवकी को हथकड़ी-बेडी से जकड़कर बंदीगृह में डाल दिया।  अपने पिता  राजा उग्रसेन को भी  कैद में डालकर  स्वयं वहां का राजा बन बैठा। 

कंस स्वयं ही बहुत बली था, दूसरे उसे   जरासंध की सहायता  प्राप्त थी। जरासंध मगध के शक्तिशाली राजा था। उसके अतिरिक्त  प्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशी, धेनकासुर आदि  असुरगण   तथा  वाणासुर, भौमासुर, आदि अनेक   बलशाली असुर  राजा भी उसके सहायक थे।  इन सबको  साथ लेकर वह यदुवंशियों को कष्ट देने लगा।   कंस के असहनीय  अयाचारों  के कारण अधिकांश यदुवंशी लोग  वहां से भागकर  इधर-उधर के  दूसरे प्रदेशों में जा बसे। रोहिणी सहित  वसुदेव की अन्य पत्नियाँ  भी  मथुरा  छोडकर   गोकुल  चली गयी।   कारागार में  वसुदेव और देवकी को  कंस ने बहुत कष्ट दिए। दुखित ह्रदय से वे  भगवान हरि  का स्मरण करते हुए वे  समय काटते रहे।  देवकी के जब भी कोई  पुत्र उत्पन्न होता,  कंस  बड़ी निर्दयता से  उसकी  हत्या कर देता।    इस प्रकार अन्यायी कंस ने  एक एक करके देवकी की छः संतानों को मार डाला।  तब सातवें गर्भ  में श्रीभगवान के अंश कहे जाने वाले  श्रीशेषजी आकर स्थित हुये। . आनंद स्वरुप शेषजी के गर्भ में आते ही  माता देवकी को जहाँ एक ओर  स्वाभाविक प्रसन्नता हुई वहीं  दूसरी ओर कंस द्वारा उस बालक के  मारे जाने का डर भी सताने लगा। 

जब भगवान ने जाना कि कंस हमारे प्यारे यादवों को बहुत दुःख दे रहा है, तब  उन्होंने योगमाया को आज्ञा देते हुए कहा-   'हे देवि! मेरा शेषरूपी अंश देवकी के गर्भ में स्थित है।  वसुदेव की रोहिणी नाम की  एक अन्य पत्नी  भी है।  वह ब्रज में नन्द के यहाँ गुप्त रूप से निवास कर रही  है।. तुम देवकी के गर्भ को  निकालकर उस  रोहिणी के उदर में स्थापित कर दो।"  भगवान का आदेश मानते हुए  योगमाया ने देवकी के गर्भ को  रोहिणी  के उदर में  खिसका दिया। उस बार  जब  देवकी के  संतान उत्पन्न नहीं हुई तो सब ने यही  जाना कि देवकी का गर्भ पूरा होने से पहले ही गिर गया। गुप्तचरों ने कंस को भी गर्भ के गिर जाने की सूचना  दी।    योगमाया ने वसुदेव और देवकी को स्वप्न में बताया कि  मैंने तुम्हारा गर्भ रोहिणी को दे दिया है। चिंतित  होने का कारण  नहीं है।    कुछ समय बीतने के बाद श्रवण सुदी चौदह बुधवार को  ब्रज  में रोहिणी ने  एक सुन्दर तेजस्वी बालक को जन्म दिया।  उस  बालक को भगवान शेष का अवतार कहा  जाता ह।.  श्रीकृष्ण से पहले अवतीर्ण होने के कारण उसको  भगवान के  बड़े भाई होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।  बलवानों में श्रेष्ठ होने के कारण उसे  'बलराम' नाम से ख्याति  प्राप्त हुई तथा  देवकी के गर्भ से खींचे जाने के  कारण वह तरुण वीर  'संकर्षण' नाम से भी प्रसिद्द हुआ. उन्हें अनंत भी कहा जाता है।


दिनों-दिन कंस का आतंक  बढ़ता गया। देवकी  वसुदेव को नित्य नई यातनाएं झेलनी पड़ रही थी.  कंस के अत्याचारों से प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही थी।  चारों ओर  भय और आतंक का वातावरण था। दुर्गति से  छुटकारा पाने  का  कोई उपाय  नहीं सूझ रहा थ।. सब के चहरे मुरझा  चुके थे। कोई महापुरुष इस भयंकर दुर्गति से उबारने के लिए अवश्य अवतरित  होगा-  आशा की यही  किरण सबके  ह्रदय को  जागृत  किये हुए थी। तब  दया के सागर, दुखहर्ता, दीनदयाल, भक्तों को अभय करने वाले परमपिता नारायण का ह्रदय द्रवित हो गया। श्रीभगवान ने  भूलोक में अवतरित होने की अपनी  इच्छा प्रकट करते  हुए योगमाया से  कहा-"हे देवी कल्याणी ! मैं मथुरा में देवकी के गर्भ  से उत्पन्न होउंगा।  तुम उसी दिन और उसी घड़ी  नन्द के यहाँ यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होना।" "जैसी आपकी  आज्ञा"- कहकरयोगमाया यशोदा के गर्भ में स्थापित हो गई।
                                                                           .
भगवान विष्णु देवकी के गर्भ में विराजमान हो गये। तब देवकी का  ह्रदय आनंद से भर गया। उनके मुखमंडल  पर पवित्र  मुसकान छा गई। शरीर की कान्ति से कारागार की अँधेरी कोठरी जगमगाने लगी।  
पहरेदारों ने जब यह समाचार  कंस को  सुनाया तब वह तत्काल बंदीगृह जा पहुंचा।  देवकी के  मुखमंडल पर अचानक अपूर्व तेज  देखकर वह भयभीत हो  गया। भगवान विष्णु अवतार लेकर मुझे मारेंगे-इस डर से वह कांपने लगा। तब  उसके मन में विचार आया-'क्यों न पुत्र  उत्पत्ति से  पहले  ही  देवकी की   जीवन लीला समाप्त कर  दी जाय?'  लेकिन लोक निंदा के भय से  उसने यह विचार  त्याग दिया और पुत्र के पैदा होने की प्रतीक्षा करना ही उचित समझा।  'इसके पुत्र को  ही मारूंगा, किन्तु पैदा होने के बाद वसुदेव और देवकी उसको कही छुपा न दें ' -यह सोचकर उसने बंदीगृह की रखवाली करने वालों की  संख्या बढ़ा  दी और वहां  बड़े-बड़े योद्धा तैनात कर दिय। चौकसी के लिएनित स्वयं
 बंदीगृह जाने  लगा। वह इतना  भयभीत हो गया कि  उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते  हर समय उसे  कृष्ण रूपी काल ही दिखने देने लगा ।
                                                                             .


भगवान के अविर्भाव का शुभ समय निकट  था। रोहिणी नक्षत्र के आगमन के साथ  ब्रहांड के  सभी ग्रह  सौम्य और शांत हो  गये। निर्मल आकाश में तारे जगमगाने लगे। भूमंडल पर मंगलमय मनोहर  वातावरण उपस्थित हो गया। नगर, गाँव, ब्रज आदि सब बहुत शोभायमान दिखाई देने लगे। दिशाए स्वच्छ सुहावनी और प्रसन्न थीं।मन को आनंदित करने वाली  शीतल सुगन्धित पवित्र  पवन मंद मंद गति से  चलने लगी।   नदियों का जल निर्मल हो गया। धाराएं थम  गई और उनका  कोलाहल शांत  हो  गया। सरोवरों में रात्रि में कमल खिल गए। वन  उपवन के  सभी  वृक्ष हरी-हरी सुन्दर सुहावनी  पत्तियाँ लिये  रंग-विरंगे  फूलों से लद  गए। पक्षी  चहचहाने  लगे  तो भौरे ने गुंजार करना  आरंभ कर दिया। साधुजनों के मन  प्रसन्नता  से खिल उठे। सभी देवगण प्रसन्न हो  आकाश से फूलों की वर्षा   करने लगे। गन्धर्व ढोल दमामे बजाकर प्रभु के गुणगान करने लगे, तो उर्वशी आदि सब अप्सराएँ नाचने लगी। अचानक  आकाश में घनघोर घटा छा गई और तडातड बिजली  चमकने लगी। समुद्र गरजने लगा। रोहिणी नक्षत्र  भाद्र पद कृष्ण-पक्ष की अष्टमी अर्धरात्रि में कंस के बंदीगृह में देवकी के  गर्भ से  चन्द्रमा के समान, सोलह कलाओं  से पूर्ण  भगवान श्रीहरि भूलोक में अवतरित हुए।उसी समय योगमाया ने गोकुल में नन्द के घर कन्या के रूप  में  जन्म लिया।

भगवान  ने वसुदेव देवकी को अद्भुद रूप में दर्शन दिए। वर्षाकालीन मेघ के समान सुन्दर श्यामल शरीर , कमल के सामान कोमल नयन और सूर्य के समान चमकते हुये घुंघराले बालों वाले, चंद्रमुखी श्रीहरि  बहुत शोभायमान हो रहे थे। उनकी चार भुजाएं थी जिनमें शंख चक्र गदा  पद्म लिये  हुए थे। वे सिर  पर स्वर्ण मुकुट, कानों में कुंडल, गले में बैजंती माला, बाँहों में बाजूबंद,कलाइयों  में कंकण आदि रत्न जडित आभूषण पहने हुये थे और शरीर पर  पीताम्बर धारण किये हुए थे। इस तरह के  आकर्षक  रूप को  देखकर वसुदेव और देवकी अचंभित हो गए। ज्ञान से विचार करने पर उन्होंने जाना कि यह कोई साधारण बालक न होकर आदिपुरुष नारायण हैं। तब वसुदेव जी ने हाथ जोड़ विनती करते हुये कहा-"हे प्रभु! आप साक्षात पुरषोत्तम हैं। हम बहुत भाग्यशाली हैं जो आपने  दर्शन देकर  हमें जन्म मरण के बंधन से मुक्त कर दिया।" इतना कहकर वसुदेव जी ने भगवान को अपने जीवन की  सारी कथा सुनाई  और बताया कि पापी कंस ने उनको कैसे कैसे  दुःख दिये हैं। तब भगवान श्रीकृष्णचन्द्र बोले-"अब आप निश्चिन्त हो जाओ। मैंने तुम्हारे दुःख दूर करने के लिए ही जन्म लिया है। इस समय गोकुल में नन्द के यहाँ एक कन्या ने जन्म लिया है। मुझे गोकुल पहुंचा दो और उस कन्या को यहाँ ले आओ।"



भगवान ने साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। वसुदेव के मन में अपने पुत्र  को लेकर कारागार से  बाहर निकलने का विचार आते ही   योगमाया ने सभी सैनिकों  को सुला दिया। मानो सभी मूर्छा में हो।  हथकड़ियाँ टूटकर नीचे गिर गई।   बंदीगृह के   कपाट स्वतः ही खुल गए।   सूप में लेटे हुए त्रिलोकीनाथ को     वसुदेव सिर पर उठाकर कारागृह से बाहर आये।   सभी बाधाओं को पार करके  वे नन्द भवन पहुंचे। वहाँ  योगमाया के प्रभाव से सारा गाँव गहरी नींद में डूबा हुआ था। नन्द यशोदा सब निद्रामग्न थे। वसुदेव ने श्रीकृष्ण को यशोदा जी की गोद  रख दिया और वहाँ  कन्या के रूप लेटी  योगमाया को उठा लिया।  यशोदा माता को श्रीकृष्ण की उपस्थिति   का भान   प्रातः काल  उठने  के बाद  हुआ।  

सुबह होते ही  शुभ समाचार सारे गोकुल में फ़ैल गया कि  नन्दबाबा के यहाँ पुत्र  उत्पन्न  हुआ है। गोकुल गाॉव  में खुशियों की लहर दौड़ गई। नन्दजी को जब यह समाचार मिला कि  यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है , तो उनके हर्ष की सीमा ना रही।  प्रफुल्लित ह्रदय से  नन्दराज   जी  पुत्र का जन्मोत्सव  धूम -धाम से मानाने की तयारी में जुट गए। प्रातः काल ज्योतिष ब्राह्मणों  को बुलवाकर स्वस्तिवाचन पूर्वक मंगल कार्य कराया। विधिपूर्वक जात-कर्म संस्कार करवाये। पितरों और देवताओं  का पूजन करवाया।  महामनस्वी नंदराय जी ने  ब्राह्मणो को  स्वर्ण , आभूषण, वस्त्र, गौएं,आदि अनेक वस्तुएँ     दान की।   पूरे  गोकुल में मिठाइयाँ बाँटी गईं। देवतागण हर्षित हो आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे। आम  गोकुलवासी जन्म-समारोह को आकर्षक बनाने में किसी से पीछे नहीं रहे ।गोप-ग्वाले  नृत्य करने लगे।  जगह जगह ढोल, नगाड़े, मृदंग, वीणा, शंख, दुन्दुभि आदि बजाये जाने लगे।  गायक मंगलगीत गाने  लगे ।  सब ओर   आनंद ही आनंद दिखाई दे रहा था। प्रफुल्लित  गोपियाँ    झूम-झूम कर   गा रही थीं   -  नन्द के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की !

क्रमशः 

 

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।i
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभागवद्महापुराण)


अर्थ:

यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.