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शनिवार, 15 जनवरी 2011

महर्षि अत्रि - राम अवतार यादव



परमपिता नारायण ने सृष्टि उत्पति के उद्देश्य से ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया. ब्रह्मा से अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ. , अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए. यदु से यदु (यादव) वंश चला. यदु की कई पीढ़ियों के बाद यदुकुल शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण मानव रूप में अवतरित हुए.)

महा-ऋषि अत्रि कौन थे इसका संक्षिप्त उल्लेख नीचे है:-


महर्षि अत्रि
हरिवंश पुराण के अनुसार सृष्टि रचना के उद्देश्य से महातेजस्वी ब्रह्मा ने सात मानस पुत्र उत्त्पन्न किये जिनके नाम हैं- मारीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ और कौशिक. श्रीमदभगवत-सुधा सागर (शुक सागर) में ब्रह्मा के दस मानस पुत्रो का वर्णन है, उनके नाम-मरीचि , अत्रि,अंगीरा, पुलस्त्य,पुलह, क्रतु,भृगु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद हैं. इन महाऋषियों के बिभिन्न बड़े-बड़े दिव्य वंश हैं. महर्षि अत्रि एक वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि थे। पुराणों के अनुसार इनका जन्म ब्रह्मा जी के नेत्र या मस्तक से हुआ था। सप्तर्षियों में महर्षि अत्रि की भी गणना होती है। वैवस्वत मन्वन्तर में अत्रि एक प्रजापति थे। इनकी पत्नी कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री थीं और उनका नाम अनुसुया था. महर्षि अत्रि अपने नाम के अनुसार त्रिगुणातीत परम भक्त थे, वैसे ही अनुसूया भी भक्ति मती थी. वे चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे. इस दम्पति को जब ब्रह्मा जी ने कहा कि सृष्टिवर्द्धन करो तो इन्होने सृष्टिवर्द्धन करने से पहले तपस्या करने का निश्चय किया और घोर तपस्या की. श्रधापूर्वक दीर्घकाल तक निरंतर साधना और प्रेम से आकृष्ट होकर ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों ही देवता प्रत्यक्ष उपस्थित हुए और वरदान मांगने को कहा. ब्रह्मा की आज्ञा सृष्टि वद्धन की थी और वे सामने खड़े थे. तब इन्होने कोइ और वरदान न मांगकर उन्ही तीनों को पुत्र रूप में माँगा. त्रिदेवों ने इनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए 'एवमस्तु" कहा और समय पर इनके पुत्र के रूप में अवतार ग्रहण किया. विष्णु के रूप में "दत्रात्रेय", ब्रह्मा के अंश से "चंद्रमा", और भगवान् शंकर के अंश से "दुर्वाषा" का जन्म हुआ.

( ब्रह्मा से अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ., अत्रि दम्पति से चंद्रमा नामक पुत्र का जन्म हुआ. चंद्रमा से चन्द्र वंश चला. चन्द्र वंश में आगे चलकर यदु का जन्म हुआ. यदु से यादव वंश चला.)



चंद्रमा

चंद्रमा के पिता महा ऋषि अत्रि का संक्षिप वर्णन पिछले पृष्ठ में किया है. चंद्रमा के बारे में संक्षिप्त वर्णन यहाँ प्रस्तुत है:

अत्रि का पुत्र चंद्रमा था जिसे प्रजापति ब्रह्मा ने औषधियों का स्वामी बनाया. चंद्रमा ने अपने राज्य की महिमा बढ़ाने के लिए राज-सूय यज्ञ किया और मदोन्मत होकर देवताओं के गुरु वृहस्पति की सुंदर पत्नी तारा का हरण कर लिया. देव ऋषि वृहस्पति तथा देवताओं के राजा इंद्र ने चंद्रमा को समझाते हुए कहा कि--तारा को लौटा दो. ब्रह्मा जी आदि देवताओं ने भी उनको बहुत समझाया. परन्तु चंद्रमा ने तारा को नहीं लौटाया. इस पर देवराज इंद्र सेना लेकर चंद्रमा से लड़ने को आमादा हुए. दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य जी थे. वे देवगुरु वृहस्पति से द्वेष मानते थे. जिस कारण उस समय वे सेना सहित चंद्रमा की सहायता के लिए आगे आए. शुर्काचार्य की सेना में जम्भ, कुम्भ आदि जसे दैत्य थे. इस तरह तारा के लिए देवताओं और असुरों के बीच घोर संग्राम छिड़ गया. देवासुर संग्राम से क्षुब्ध होकर संसार के समस्त प्राणी ब्रह्मा जी के शरण में गए. तब भगवान् ब्रह्माजी ने बीच-बचाव करते हुए शुक्र, रूद्र, देव, दानव में समझौता करा कर तारा को पुनः देव ऋषि वृहस्पति को दिलवाया.

उस समय तारा गर्भवती थी. उस अवस्था में देख कर वृहस्पति जी बोले मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है इसे दूर कर. वृहस्पति के येसा कहने पर तारा ने गर्भ को झाड़ियों में त्याग दिया. जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में त्यागा वह अत्यंत सुंदर तेजधारी बालक था. जिसके समक्ष समस्त देवताओं का तेज भी फीका था. उस सुंदर एवं तेजधारी बालक को देख कर चंदमा और वृहस्पति दोनों ने अपना पुत्र बनाना चाहा. उनकी इस उत्सुकता को देख कर देवताओं को संदेह हुआ और वे तारा से पूछने लगे कि सत्य बताओ देवी यह किसका पुत्र है? परन्तु लज्जावश तारा कुछ नहीं बोल सकी. देवताओं के बार-बार पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया. इस पर वह बालक कुपित होकर कहने लगा- शीघ्र सच्चाई बता दो नहीं तो मैं तुझे अति भयंकर श्राप दे दूंगा. तब ब्रह्मा जी ने उस बालक को शाप देने से मन किया और स्वयं तारा से पूछने लगे. तारा बोली कि यह बालक चन्द्र्मा का है.
यह सुनकर चंद्रमा अत्यंत प्रसन्न हुए और उस बालक को गले लगते हुए बोले- अति उत्तम- बहुत ठीक, बेटा तुम बहुत बुद्धिमान हो इस लिए मैं तुम्हारा नाम "बुध" रखता हूँ. इस प्रकार चंद्रमा ने अपने पुत्र का नाम बुध रख दिया.




(बुध चन्द्र वंशी थे. बुध के पुत्र पुरुरवा थे. पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए. यदु से यादव वंश चला. यदु की कई पीढ़ियों के बाद यादव कुल में माता देवकी की कोख से भगवान् श्रीकृष्ण ने मानव रूप में अवतार लिया.)

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।i
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभागवद्महापुराण)


अर्थ:

यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.