उत्तर प्रदेश के
अमेठी जिले के मुख्यालय गौरीगंज से मुसाफिरखाना मार्ग पर 16 किलोमीटर की
दूरी पर बसा यह स्थान पौराणिक महत्त्व समेटे हुए है। यह यादवों का
एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। इस स्थान का प्रादुर्भाव कब हुआ इस विषय में
कई मत प्रचलित हैं। एक किंवदंती के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण अपने भाई बलराम
के साथ पौंड्रक नामक घमंडी राजा को मारने के लिए द्वारिका से काशी गए हुए
थे। तब वसुदेव और नंदबाबा उनको खोजते हुए यहाँ आये थे। उस समय यहाँ घना
जंगल था। पौंड्रक को मारकर श्रीकृष्ण बलराम के साथ द्वारिका वापस जा
रहे थे, उस समय नन्दबाबा और वसुदेव से उनकी
मुलाकात इसी स्थान पर हुई। सभी लोगों ने यहाँ तीन दिन तक विश्राम
किया। उसी दौरान यहां एक यज्ञ का आयोजन भी किया गया। नंदबाबा ने भगवान
की मूर्ति स्थापित करके उनकी पूजा की थी। श्रीकृष्ण, बलराम, वसुदेव और
नंदबाबा के चरणरज से यह स्थान पवित्र हो गया। यदुवंशियों के पूर्वज होने
के कारण यह स्थान उनकी आस्था, श्रद्धा और विश्वास का प्रमुख केंद्र बन
गया। तभी से लोग यहाँ अनवरत यज्ञ, हवन और पूजा करते आ रहे हैं। प्रभु की
याद में धाम के पड़ोस में बसे तीन गांवों का नाम इस प्रकार है-हरि
(श्रीकृष्ण) के नाम पर हरिकनपुर, वसुदेव के नाम पर बसयातपुर और नन्द के नाम
पर नदियाँवा।
नन्दबाबा ने जिस स्थान पर पूजा की थी, वहां पहले मिट्टी का चौरा (चबूतरा) था। किन्तु बाद में, सन 1956 ई. में , उस चौरे के स्थान पर मंदिर का निर्माण करावाया गया। उस मंदिर के भीतर मूर्तिकक्ष में
प्रत्येक मंगलवार
को गाय और भैंस का दूध चढ़ाये जाने की परंपरा है। ऐसी मान्यता है कि गाय भैंस के बियाने के बाद आगामी पांच मंगलवार यहाँ दूध चढाने से वह गाय भैंस स्वस्थ रहने के साथ बहुत
दिनों तक अधिक दूध देती है। जाति-पाति का भेदभाव किये बिना सभी
धर्मों और समुदाय के लोग बड़ी संख्या में मंगलवार को यहाँ दूध चढाने आते
है।
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यह स्थान 'राजाबली' और 'पंवरियां'
की पूजा के लिए बहुत प्रसिद्द है. उल्लेखनीय है
कि इस क्षेत्र के अधिकांश यदुवंशी 'राजाबली' और 'पंवरियां'
नामक देवता की पूजा करते हैं। उन पुजारियों को ओझा कहा जाता है। पारम्परिक समाज में मान्यता
है कि ओझा में प्रत्यक्ष दुनिया से बाहर किसी रूहानी दुनिया,
आत्माओं, देवी-देवताओं या ऐसे अन्य ग़ैर-सांसारिक तत्वों से सम्पर्क रखने
या उनकी शक्तियों से लाभ उठाने की क्षमता होती है। ओझाओं के बारे में यह
धारणा भी है कि वे अच्छी और बुरी आत्माओं तक पहुँचकर उनपर प्रभाव डाल सकते
हैं
और ऐसा करते हुए अक्सर वे किसी विशेष चेतना की अवस्था में होते हैं। ऐसी
अवस्था को किसी देवी-देवता या आत्मा का 'चढ़ना' या 'हावी हो जाना'
कहतें हैं। यह प्रथा कमोबेश आधुनिक समाज में भी मान्य है, किन्तु अधिकांश
लोग इसे अन्ध-विश्वास मानते हैं। नंदमहर धाम में आने वाले ओझा लोग राजबली और पवंरिया के पुजारी होते हैं और विशेष चेतना अवस्था में इनके ऊपर इन्ही देवताओं की सवारी होती है।कई पुजारी प्रत्येक मंगलवार
को नियमित रूप से नन्दमहर धाम आते है और अपने ईष्टदेव अर्थात राजबली महाराज और पवंरिया के नाम की हवन करते हैं। पचरा जो कि रिझाने वाला गीत है उसको गाकर महाराज को प्रसन्न करते है और उनकी अलौकिक शक्तियों के द्वारा कथित उपरी हवा,
भूत,-प्रेतों आदि बुरी आत्माओं से पीड़ित लोगों का इलाज करते हैं।
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राजाबली और पवंरिया कौन हैं? इसके बारे में मंदिर के महंत भारतनन्द का कहना है कि रोहिणी नंदन बलराम को राजाबली और उनके अंगरक्षक को पंवरिया कहा जाता है.नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया द्वारा प्रकाशित हिन्दी समातर कोश में भी 'बली' का अर्थ 'बलराम (दाऊ)' और पवंरिया का अर्थ 'पहरेदार' बताया गया है। इससे स्पस्ट होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण के भ्राता श्री बलरामजी को राजबली और उनके सेवक को पवंरिया कहा जाता है। शक्ति और पराक्रम के प्रेरणा-श्रोत होने के कारण लोग बड़ी श्रद्धा और विश्वास से उनकी पूजा करते हैं।
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राजाबली और पवंरिया कौन हैं? इसके बारे में मंदिर के महंत भारतनन्द का कहना है कि रोहिणी नंदन बलराम को राजाबली और उनके अंगरक्षक को पंवरिया कहा जाता है.नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया द्वारा प्रकाशित हिन्दी समातर कोश में भी 'बली' का अर्थ 'बलराम (दाऊ)' और पवंरिया का अर्थ 'पहरेदार' बताया गया है। इससे स्पस्ट होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण के भ्राता श्री बलरामजी को राजबली और उनके सेवक को पवंरिया कहा जाता है। शक्ति और पराक्रम के प्रेरणा-श्रोत होने के कारण लोग बड़ी श्रद्धा और विश्वास से उनकी पूजा करते हैं।
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प्रति वर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमासी को यहाँ बहुत
बड़ा मेला लगता हैं. इसे नन्दमहर बाबा का मेला कहा जाता है. इसे यादवों का महाकुम्भ भी कहा जाता है। उस
दिन वहां श्रद्धालुयों का जनसैलाब देखते ही बनता है। सुल्तानपुर,
फैजाबाद,बाराबंकी, आजमगढ़, बहराइच, गोंडा, आंबेडकर नगर,
प्रतापगढ़, रायबरेली आदि अनेक जिलों के श्रद्धालु बड़ी संख्या में
यहां हरि दर्शन हेतु आते है। एक अनुमान के अनुसार दो दिन तक चलने वाले
इस यादव-महाकुम्भ में लगभग एक लाख श्रद्धालु शिरकत करते है। व्रत धारण किये हुए
ओझा लोग यहाँ हर्ष-उल्लाष के साथ, ढोल नगाड़ों की थाप पर, राजाबली और
पंवरिया की पूजा करते है। दीपावली की भाँति मिट्टी के बने दीयों में
जगमगाते दीप के द्वारा हवनकुण्ड को सजाया जाता है। तदोपरांत
विधि-पूर्वक हवन की जाती है। सभी पुजारियों का हवन-कुण्ड अलग-अलग होता
है। सामूहिक रूप से हवन करने की प्रथा नहीं है। मंदिर के प्रांगण में भक्तों द्वारा राजाबली महाराजऔर पवंरिया के नाम का 'निशान' चढ़ाये जाने की परंपरा भी है। यह दृश्य उस दिन का मुख्य आकर्षण होता है। रंग-विरंगे कपड़ों से बने अनेक झंडियों वाले ध्वज या पताके को 'निशान' कहा जाता है। निशान चढाने के लिए भक्तगण मीलों पैदल चल कर, हथेली पर प्रज्वलित दीप थामे, राजबली महाराज के नाम का मन्त्र गुन -गुनाते नंदमहर धाम तक पहुंचते है। कन्धों पर ध्वज उठाये हुए अन्य
व्यक्ति उनके पीछे-पीछे चलकर आते हैं। काबिलेगौर है कि इस दौरान रास्ते
में ना तो ज्योति बुझने दी जाती है और नहि ध्वज को पृथ्वी पर रखने दिया
जाता हैं। ऐसे सैकड़ों ध्वज प्रति-वर्ष यहाँ चढ़ाये जाते हैं। रंग-विरंगे लहराते झंडों से सजा नन्दमहर धाम उस दिन बहुत शोभायमान होता है।
जयश्रीकृष्ण