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सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

रासलीला (महारास) by Ram Avtar Yadav



अश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं. इसे रास पूर्णिमा भी कहते है. शरद ऋतु में आमतौर मौसम साफ़ रहता है. आकाश में न तो बादल होते है और नहि धूल के गुब्बार. सम्पूर्ण वर्ष में केवल अश्विन मास की पूर्णिमा का चंद्रमा ही षोडस कलाओं का होता है. कहा जाता है कि इस पूर्णिमा की रात्रि को चंद्रमा अमृत की वर्षा करता है. इस रात्रि में भ्रमण करना और चन्द्र किरणों का शरीर पर पड़ना बहुत ही शुभ माना जाता है. शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज -बालाओं के साथ वृन्दावन में महारास किया था.रास-लीला की कथा इस प्रकार है:-
चीर-हरण के समय श्रीकृष्ण ने सब गोपियों वचन दिया था कि हम शरद पूर्णिमा को तुम्हारे साथ रास करेंगे. तभी से वे सब आतुर होकर शरदऋतु के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी थी. इन्तजार करते-करते सुखदाई शरदऋतु आ ही गई. पूर्णिमा की रात थी. निर्मल आकाश से चंद्रमा लालिमा युक्त चांदनी लिए पृथ्वी पर अमृत की वर्षा कर रहा था. सघनवन में चारों ओर बेला चमेली आदि पुष्प खिले हुए थे जिससे सारा वातावरण सुगन्धित हो रहा था. मंद मंद शीतल पवन चल रही थी. तब श्रीकृष्ण भगवान ने गोपियों को दिए हुए वचन का विचार कर वृन्दावन में जाकर बांसुरी की मधुर तान छेड़ दी. वंशी की ऐसी मनमोहक धुन थी कि उसे सुनकर ब्रज की सभी गोपियाँ भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा आदि का त्याग कर, अपने अपने काम को ज्यों-का-त्यों छोडकर, उलटे-पुल्टे वस्त्र पहने हुए, जल्दी से जल्दी श्रीकृष्ण के पास पहुँचने के लिए चल पड़ी. गोपियाँ अपने अपने झुण्ड लिए श्रीहरि के समक्ष आ उनको चारों तरफ से घेर कर खड़ी हो गई. प्रभु ने सबका कुशल-क्षेम पूछा, फिर कहा- "कहो! रात के समय उलटे-पुल्टे बस्त्र-आभूषण धारण कर, कुटुंब की माया तजकर इतनी घबराई हुई इस महावन में कैसे आना हुआ. ऐसा साहस करना नारियों के लिए उचित नहीं है. तुम सबने सघन-वन की निर्मल चांदनी का आनंद ले लिया है, अब अपने-अपने घर वापस जाओ." श्री नारायण के मुख से ऐसे कठोर वचन सुन कर गोपियाँ बोली-" हे मनमोहन! तुम बड़े ठग हो. पहले तो मोहिनी तान सुनाकर हमारा ज्ञान, ध्यान, तन, मन सब हर लिया, अब निर्दयी होकर हमारे प्राण हारना चाहते हो." तब श्रीहरि ने मुस्कारा कर सभी गोपियों को अपने निकट बुलाया और कहा-"यदि तुम सबकी यही इच्छा है तो आज की रात हमारे साथ रास खेलो."
लीलामयी भगवान ने तब अपनी माया को आज्ञा देकर यमुना के तट पर हीरे-मोती से युक्त सुन्दर मंडलाकार चबूतरा बनवाया. सभी गोपियों ने एक सरोवर के किनारे जाकर सुथरे वस्त्र-आभूषण पहनकर श्रृंगार किया, अच्छे-अच्छे बाजे, घुँघरू आदि बाँध-बाँध वे उस चबूतरे पर एकात्रित हुईं और प्रेममद में बिना संकोच किये श्रीकृष्ण के साथ नाचने-गाने लगी. श्रीकृष्ण गोपियों के बीच ऐसे सुहावने लग रहे थे जैसे तारों के मंडल में चंद्रमा शोभायमान होता है. इस प्रकार क्रीडा-कला द्वारा नन्द-नंदन गोपियों को आनंदित करने लगे. श्रीकृष्ण भगवान से उन गोपियों को बहुत मान मिला. इस तरह मानवती होकर वे स्वयं को भूमंडल की अन्य स्त्रियों से श्रेष्ठ समझने लगी. वे समझने लगी कि इस भू-मंडल पर अब हमारे समान कोई और नहीं है. तदन्तर गर्व-प्रहारी श्रीहरि ने गोपियों के अहंकार को दूर करने के लिए उनके बीच से अंतर्धान हो गए.
एकाएक श्रीभगवान को न देखकर वे सब इस प्रकार व्याकुल हो गयीं जैसे मणि के खो जाने पर सर्प व्याकुल हो जाता है. श्रीहरि नारायण का गुणगान करती हुई वे वन में चारों तरफ घूम-घूम कर उनको ढूँढने लगी, जगह-जगह पेड़-पौधों, फूल- पत्तियों, पशु-पक्षियों आदि से नन्दकिशोर का पता पूछती हुई फिरने लगी. अंत में थक कर यमुना के तटपर आकर भगवान का ध्यान करती हुई उनके आने की अभिलाषा लिए हुए उनका गुणगान करने लगीं. इस तरह सारे प्रयत्न करने के उपरान्त भी जब श्रीभगवन नहीं मिले तो सब निराश होकर ऊँचे-ऊँचे स्वर में रोने लगी. उस समय मंद-मंद मुस्कान लिए, पीताम्बर पहने, बनमाला धारण किये साक्षात कामदेव को मोहित कर लेने वाले श्रीकृष्णचन्द्र उन गोपियों के बीच प्रकट हो गए. उनको देखते ही गोपियाँ एकाएक विरह-सागर से निकल प्रसन्नता से झूमती हुई वे सब उनके पास गईं और नतमस्तक हो उनको चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गईं. तब कृष्णचन्द्र उनको लेकर उसी स्थान पर गए, जहां पहले रास-विहार किया था.
लीलामयी नारायण की अदभुद लीला देखो, जितनी गोपियाँ थीं , उतने ही कृष्ण वहां मौजूद थे. प्रत्येक बाला के साथ एक-एक नन्दकिशोर एक दूसरे को गल-बहियाँ डाले नृत्य करते दिखाई पड़ रहे थे. उस समय प्रत्येक गोपी यह समझ रही थी कि श्रीभगवान केवल मेरे ही समीप हैं. उस अदभुद नृत्य क्रीडा को देखने के लिए स्वर्ग के सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आ पहुंचे श्रीभगवान विहार करते-करते जब थक गए, तब थकावट दूर करने के लिए गोपियों को साथ लिए यमुना के निर्मल जल जा घुसे. जल-क्रीडा करते हुए सभी ने एक दूसरे पर पानी उलच-उलच कर स्नान किया. तदोपरांत जब बाहर आए, तब यदुनंदन श्रीकृष्ण ने गोपियों से कहा-'अब चार घड़ी रात बाकी है, तुम सब अपने-अपने घर जाओ." इतना सुन गोपियाँ उदास मन से कहने लगीं-"हे नाथ! आपके चरण छोड़कर हम घर कैसे जाएँ?." तब श्रीकृष्ण सबको समझाते हुए बोले-"सुनो, जैसे योगीजन मेरा ध्यान करते है, तुम सब उसी तरह मेरा ध्यान करना तब तुम जहाँ भी रहोगी मै सदा तुम्हारे पास रहूँगा." इतनी बात सुनकर संतोषपूर्ण विदा हो वे सब अपने अपने घर गईं. प्रभु कृपा से उनके घरो में सब सोये हुए थे. इसलिए उनके घर-वालों में से किसी को कुछ भी पता नहीं चला.

जय श्रीकृष्ण!

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपको भी शरद पूर्णिमा की शुभकामनाएं ! बहुत सुन्दर वर्णन किया।

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वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।i
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभागवद्महापुराण)


अर्थ:

यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.