कालयवन की सेना का संहार कर श्रीकृष्ण और बलराम जरासंध के सामने से भागते हुए प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गए। जरासंध ने उनको पर्वत पर जलाकर भस्म कर देना चाहा। इस कारण उसने पर्वत के चारों तरफ आग लगवा दी। पर्वत धू धू करके जलने लगा । आग की लपटे शिखर तक पहुँच गईं। चारों तरफ आग ही आग दिखाई दे रही थी। लपटों के बीच फंसे दोनों भाई शिखर से कूद कर भागते हुए द्वारिका जा पहुंचे। मथुरा के यादवों को पहले ही द्वारिका पहुंचा दिया था।
महाराजा उग्रसेन की छत्रछाया में धन धान्य से परिपूर्ण द्वारिका पुरी में सब सुख पूर्वक रहने लगे। इस बीच दोनों भाइयों का विवाह हो गया - बलदेव जी का रेवती से और श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ। श्रीकृष्ण ने कई विवाह किए, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
महाराजा उग्रसेन की छत्रछाया में धन धान्य से परिपूर्ण द्वारिका पुरी में सब सुख पूर्वक रहने लगे। इस बीच दोनों भाइयों का विवाह हो गया - बलदेव जी का रेवती से और श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ। श्रीकृष्ण ने कई विवाह किए, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
पहला विवाह - रुक्मिणी के साथ।
दूसरा विवाह - जांबवान की कन्या जांबवती से।
तीसरा विवाह -सत्रजीत की पुत्री सत्यभामा से .
चौथा विवाह - सूर्य कन्या कालिंदी से।
पाँचवा विवाह-अवन्ति नरेश की पुत्री मित्रविंद से।
छठा विवाह -नग्नजित की कन्या सत्य से।
सातवाँ विवाह -केकय राजकुमारी भद्रा से।
आठवाँ विवाह -वृहत्सेन की पुत्री लक्ष्मणा से।
सोलह हज़ार एक सौ राजकुमारियाँ भौमासुर के कारागार में बंद थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर का वध करके उन सब को कैद से छुड़ा दिया था। उन युवतियों की इच्छा को ध्यान में रख कर उन्हें अपने साथ द्वारिका ले आए और सबको अपनी रानी बनाया। इस प्रकार श्रीकृष्ण के सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं।
सुख समृद्धि से ओत-प्रोत उग्रसेन ने एक दिन श्रीकृष्ण को शीश नवकार राजसूय यज्ञ करने की इच्छा व्यक्त की। श्री भगवान ने कहा यादेश्वर ! आपके मन में बड़ा उत्तम विचार आया है। राजसूय यज्ञ से तीनों लोकों में आपका यश फ़ैलेगा । तदन्तर उग्रसेन ने अंधक, वृष्णि आदि यादवों को सुधर्मा सभा में बुलवाया और पान का बीड़ा रखकर कहा -जो समरांगण में समस्त राजाओं को जीत सके, वह वीर यह बीड़ा चबाए। रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न ने राजा को प्रणाम करके बीड़ा उठा लिया। यह देखकर चारों तरफ हर्ष की लहर दौड़ गई। देवलोक से देवताओं ने वहाँ आकर प्रद्युम्न को विजय प्राप्ति के लिए आशीर्वाद और आवश्यक अस्त्र - शस्त्र प्रदान किए ।
रुक्मिणी नंदन प्रद्युम्न ने झुक कर राजा उग्रसेन, शूर, वसुदेव, बलभद्र, श्रीकृष्ण और गर्गाचार्य को प्रणाम किया। उन सब से युद्ध नीति और नियमों की सीख ली । उनसे आदेश और आशीर्वाद मिलने के बाद प्रद्युम्न इद्र के दिए हुए रथ पर आरूढ़ हुए और विशाल यादव-सेना लेकर दिग्विजय यात्रा के लिए निकल पड़े। सर्व प्रथम वे कच्छ देशों को जीतना चाहते थे। इस उद्देश्य से दल-बल के साथ उन्होंने कच्छ की राजधानी हालीपुर को ओर कूच किया।
कच्छ देश का राजा शुभ्र उस समय वन में शिकार खेलने के लिए गया था। उसे जब यादवों की सेना के आने का समाचार मिला, तो वह राजधानी लौट आया। यादवो की विशाल एवं सशक्त सेना को देखकर वह भयभीत हो गया। अपनी प्रजा और स्वयं के हितों को ध्यान में रखते हुए वह प्रद्युम्न के समक्ष उपस्थित हुआ और मस्तक झुकाकर उनको प्रणाम किया। उसने बहुत से हाथी, घोड़े, सुवर्ण आदि भेंट देकर आधीनता स्वीकार कर ली। प्रद्युम्न ने उसको रत्नों की एक माला उपहार स्वरुप दिया और उसके राज्य पर पुनः उसीको प्रतिष्ठित कर दिया। इस प्रकार प्रद्युम्न ने बिना लड़े ही कच्छ पर विजय प्राप्त कर ली। इसके बाद यादव सेना कलिंग देश को जीतने के लिए निकल पड़ी। क्रमशः.......
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