
हैहय वन्शीय अर्जुन
महाभारत के मुख्य पात्र धनञ्जय, पार्थ आदि नामो से विख्यात वीर योद्धा, महान धनुर्धर कुन्ती पुत्र अर्जुन को कौन नही जानता? परन्तु यहा वर्णित जीवन चरित्र उन गाण्डीवधारी अर्जुन का नही है बल्कि उनसे सदियो पूर्व यदुपुत्र-सहस्त्रजित के कुल मे उत्पन्न हैहय वन्शीय अर्जुन का है। जिन्हे सहस्त्रार्जुन अथवा कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से भी जाना जाता है।
वे सहस्त्र (हजार) भुजाओ से युक्त थे तथा संपूर्ण पृथ्वी को जीतकर सातो द्वीपो के राजा हुए येसा कहा जाता है। उनका संक्षिप्त जीवन चरित्र इस प्रकार है:
यदु के पांच पुत्र* हुए-१.सहस्त्रद या सहस्त्रजित, २. पयोद, ३. क्रोष्टा, ४. नील या नल और ५.अंजिक। इनमे से सहस्त्रद और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया क्रोष्टा कुल में भगवान् श्री कृष्ण अवतरित हुए तथा सहस्त्रद या सहस्त्रजित के कुल मे सहस्त्रार्जुन, भोज, तालजंघ, मधु आदि हुए थे। सहस्त्रजित के तीन पुत्र हुये- हैहय,हय और वेणुहय। हैहय का पुत्र धर्मनेत्र हुआ, धर्मनेत्र के कार्त, कार्त के सहजित, सहजित के पुत्र राजा महिष्मान हुए जिन्होने माहिष्मतीपुरी बसायी। महिष्मान से भद्र्श्रेण्य हुए जो वाराणसी पुरी के अधिपति कहे गये है। भद्र्श्रेण्य के पुत्र का नाम दुर्दुम था। दुर्दुम से कनक हुए, जो बुद्धिमान और बलवान थे। कनक के चार पुत्र हुए-कृतवीर्य, कृतौजा, कृतवर्मा और कृताग्नि। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातो द्वीपो का एकछत्र सम्राट था। उसने अकेले ही अपनी सहस्त्र भुजाओ के बल से संपूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था।
कृतवीर्यकुमार अर्जुन ने दस हजार वर्षो तक घोर तपस्या करके अत्रि पुत्र दत्तात्रेय की आराधना की। इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान दत्तात्रेय ने अर्जुन को वर मागने को कहा तो उसने चार वर मागे थे:-" पहला- युद्धरत होने पर मेरी सहस्त्र भुजाए हो जाये", दूसरा -"यदि कभी मै अधर्म कार्य मे प्रवृत्त होऊ तो वहा साधु पुरुष आकार रोक दे", तीसरा- "मै युद्ध के द्वारा पृथ्वी को जीतकर धर्म का पालन करते हुए प्रजा को प्रसन्न रखू" और चौथा वर इस प्रकार था - " मै बहुत से संग्राम करके सहस्त्रो शत्रुओ को मौत के घाट उतारकर संग्राम के मध्य अपने से अधिक शक्तिशाली द्वारा वध को प्राप्त होऊ"। इन चार वरदानो के फल्स्वरूप् युद्ध की कल्पना मात्र से अर्जुन के एक सहस्त्र भुजाएं प्रकट हो जाती थी। उनके बलपर उसने सहस्त्रो शत्रुओ को मौत के घाट उतार कर द्वीप, समुद्र और नगरो सहित पृथ्वी को युद्ध के द्वारा जीत लिया था। संसार का कोई भी सम्राट पराक्रम, विजय, यज्ञ, दान, तपस्या , योग, शास्त्रज्ञान आदि गुणो मे कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नही कर सकता था। वह योगी था इसलिए ढाल-तलवार,धनुष-वाण और रथ लिए सातो द्वीपों में प्रजा की रक्षा हेतु सदा विचरता दिखाई देता था। वह यज्ञो और खेतों की रक्षा करता था। अपने योग-बल से मेघ बनकर अवश्यकतानुसार वर्षा कर लेता था। उसके राज्य मे कभी कोइ चीज नष्ट नही होती थी । प्रजा सब प्रकार से खुशहाल थी।
एक बार अर्जुन ने अभिमान से भरे हुए रावण को अपने पांच ही वाणो द्वारा सेना सहित मूर्छित करके बन्दी बना लिया था। यह सुनकर रावण के प्रपिता महर्षि पुलत्स्य वहा गये और अर्जुन से मिले। पुलस्त्य मुनि के प्रार्थना करने पर उसने रावण को मुक्त कर दिया था।श्री रामचरित मानस के लंका काण्ड में "अंगद-रावण सम्बाद " के अंतर्गत इस आशय की एक चौपाई विद्यमान है। जब सीता माता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए श्रीराम अंगद को शांतिदूत बनाकर लंका भेजते हैं, अहंकारी रावण अपने बल का बखान करते हुए अंगद को डराने का प्रयत्न करता है , उस समय अंगद उसके कमजोर बल का उदाहरण देते हुए कहते हैं :
"एक बहोरि सहस भुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिशेखा।
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा। "
भावार्थ है कि एक बार रावण सहस्त्रबाहु को मिला। उसने दौड़ कर रावण को अद्भुद जीव की तरह पकड़ लिया और तमाशे के लिए उसे अपने घर ले आया। उसको पुलस्त्य मुनि ने जाकर छुड़वाया था।
कार्तवीर्य अर्जुन पचासी हजार वर्षो तक सब प्रकार के रत्नो से संपन्न चक्रवर्ती सम्राट रहा तथा अक्षय विषयो का भोग करता रहा। इस बीच न तो उसका बल क्षीण हुआ और न हि उसके धन का नाश हुआ। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या, उसका यैसा प्रभाव था कि उसके स्मरण मात्र से ही दूसरो का खोया हुआ धन मिल जाता था।
एक बार भूखे - प्यासे अग्निदेव ने राजा अर्जुन से भिक्षा मागी। तब उस वीर ने अपना सारा राज्य अग्निदेव को भिक्षा मे दे दिया। भिक्षा पाकर अग्निदेव अर्जुन की सहायता से उसके सारे राज्य के पर्वतो, वनो आदि को जला दिया। उन्होने आपव नाम से विख्यात महर्षि वसिष्ठ का सूना आश्रम भी जला दिया। महर्षि वसिष्ठ का सूना आश्रम जला दिया गाय था, इसलिये उन्होने सहस्त्राजुन को शाप दे दिया- " हैहय! तुने मेरे इस आश्रम को भी जलाये बिना न छोडा, तुझे दूसरा वीर पराजित करके मौत के घाट उतार देगा"। दत्तात्रेय ने भी उसे इस प्रकार की मृत्यु का वरदान दिया था। वसिष्ठमुनि के शाप के कारण भगवान शन्कर के अन्शावतार परशुराम जी ने कार्तवीर्यकुमार अर्जुन का वध किया था।
अर्जुन के हजारो पुत्र थे। उनमे से केवल पाच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम की क्रोधाग्नि मे नष्ट हो गये थे। बचे हुए पुत्रो मे जयेष्ठ पुत्र का नाम जय ध्वज था। जय्ध्वज के पुत्र का नाम तालजङ्घ था। तालजङ्घ का पुत्र वीतिहोत्र हुआ वीतिहोत्र से मधु हुए। मधु के वन्शज् माधव कहलाये।
* ( विभिन्न हिन्दू धर्म- ग्रन्थ यदु के पुत्रो की संख्या के बारे मे एकमत नही है। कई ग्रन्थो मे इनकी संख्या चार बतायी गई है तो कई मे पांच । उनके नामो मे भी भिन्नता है)
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