यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे। जब जब धरती पर धर्म का पतन होता है , अन्याय और अत्याचार बढ़ने लगता है, अनीति और अधर्म फलने-फूलने लगता है, तब तब भक्तो का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने और धर्म की पुनःस्थापना हेतु भगवान अवतार धारण करते है।
द्वापर युग के अंतिम चरण की बात है। पृथ्वी पर दुष्ट आतताई राजाओं ने आतंक फैला रखा था। उनके अत्याचारों से त्रस्त लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। धर्म का नाश हो चुका था। अधर्म फल-फूल रहा था। अत्याचार इतना बढ़ गया था कि उसका बोझ उठाने में पृथ्वी असमर्थ हो गई थी। किंकर्तव्यविमूढ़ वह ब्रह्माजी के पास गई। उस समय वह बहुत घबराई हुई थी और करुण स्वर में रँभा थी। नेत्रों से आँसू बह बह कर मुख पर आ रहे थे। पृथ्वी पर बढ़ रहे अधर्म से ब्रह्माजी को अवगत कराया। पृथ्वी की करुण कथा सुनकर ब्रह्माजी बहुत दुखी हुए उन्होंने संसार से शीघ्र ही अत्याचारियों को मार भागने का आश्वासन दिया।
भगवान श्रीकृष्ण के अवतार को भली-प्रकार समझने के लिए उनसे सम्बंधित वंशावली से अवगत होना आवश्यक है। श्रीमदभागवत महापुराण में वर्णन आता है कि ययाति-के जयेष्ट पुत्र राजा यदु हुए। उनके सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु. नामक चार यशस्वी पुत्र हुए। श्रीकृष्ण और दुराचारी कंस क्रोष्टा के कुल में उपन्न हुए थे। इस कुल की क्रमागत वंशावली इस प्रकार है- क्रोष्टा के पुत्र का नाम वृजिनवान था।वृजिनवान के पुत्र नाम स्वाहि, स्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ, चित्ररथ का शशबिंदु ,शशबिंदु का पृथुश्रवा, पृथुश्रवा का ज्यामघ, ज्यामघ का विदर्भ, विदर्भ का क्रथ, क्रथ का कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निवृति,निवृति का दर्शाह, दर्शाह का व्योम, व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ, नवरथ का दशरथ, दशरथ से शकुनी, शकुनी से करम्भी, करम्भी से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश, कुरुवश से अनु हुए. अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु के सात्वत नामक पुत्र हुआ। सात्वत के सात पुत्र हुए जिनके नाम है - भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृद्ध, अन्धक और महाभोज।
सात्वत के सात पुत्रों में एक का नाम था अन्धक । कई पीढ़ियों के बाद अंधक के कुल में पुनर्वसु नामक राजा हुए। पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र और आहुकी नाम की एक पुत्री हुई। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए. उग्रसेन की पत्नी का नाम पवन रेखा था। कंस उसी पवन रेखा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। आहुक के दूसरे पुत्र देवक के चार पुत्र और सात पुत्रियाँ हुई। सात पुत्रियों में एक का नाम देवकी था। वृष्णि वंश में शूरसेन नामक राजा थे। उनके पुत्र का नाम वसुदेव था। देवकी सहित देवक की सातों कन्याओं का विवाह वसुदेव के साथ हुआ था। मथुरा उन दिनों यदुवंशियों के अधीन था और उग्रसेन वहां के महाराजा थे। सम्पूर्ण मथुरा राज्य कई मण्डलो में विभक्त था और प्रत्येक मंडल का एक राजा होता था. वह महाराजा के अधीन हुआ करता था। माथुर और शूरसेन मंडल में यदुवंशी राजा शूरसेन थे।
सात्वत के सात पुत्रों में एक का नाम था अन्धक । कई पीढ़ियों के बाद अंधक के कुल में पुनर्वसु नामक राजा हुए। पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र और आहुकी नाम की एक पुत्री हुई। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए. उग्रसेन की पत्नी का नाम पवन रेखा था। कंस उसी पवन रेखा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। आहुक के दूसरे पुत्र देवक के चार पुत्र और सात पुत्रियाँ हुई। सात पुत्रियों में एक का नाम देवकी था। वृष्णि वंश में शूरसेन नामक राजा थे। उनके पुत्र का नाम वसुदेव था। देवकी सहित देवक की सातों कन्याओं का विवाह वसुदेव के साथ हुआ था। मथुरा उन दिनों यदुवंशियों के अधीन था और उग्रसेन वहां के महाराजा थे। सम्पूर्ण मथुरा राज्य कई मण्डलो में विभक्त था और प्रत्येक मंडल का एक राजा होता था. वह महाराजा के अधीन हुआ करता था। माथुर और शूरसेन मंडल में यदुवंशी राजा शूरसेन थे।
देवकी कंस के चाचा देवक की पुत्री थी। इस प्रकार वह कंस की चचेरी बहन थी। कंस उससे बड़ा स्नेह रखता था। अपनी इस प्रिय बहन का विवाह उसने शूरसेन के पुत्र वसुदेव के साथ बहुत धूम-धाम से किया। .विवाहोपरांत कंस देवकी को रथ पर बैठा कर उसकी ससुराल पहुँचाने जा रहा था। स्नेहवश वह स्वयं ही रथ हांक रहा था। उसके साथ दहेज स्वरुप प्रदत्त अनेकों स्वर्ण जडित रथ,सोने के हारों से अलंकृत हाथी, घोड़े आदि तथा सुन्दर आभूषणों से विभूषित सुकुमारी दासियाँ भी जा रही थीं। उस समय बारात-बिदाई की अनुपम छटा देखते ही बनती थी। सब कुछ बड़े सुन्दर और व्यवस्थित ढंग से चल रहा था कि मार्ग में अचानक आकाशवाणी सुनाई दी। देववाणी ने कंस को संबोधित करते हुए कहा-" हे मूर्ख कंस! तू जिसे इतने प्रेम से रथ में बैठाकर पहुँचाने जा रहा है, उसीके आठवें पुत्र के हाथों तेरी मृत्यु निश्चित है.".
इस देववाणी सुनकर कंस क्रोधित हो गया। अपनी बहिन की चोटी पकड़ कर उसे रथ से नीचे खींच लिया और तलवार से उसका सिर काटने के लिए तैयार हो गया। यह देखकर महात्मा वसुदेव जी मन में विचार आया कि कंस तो क्रूर है ही। पाप कर्म करते करते वह निर्लज्ज भी हो गया है। इस समय यदि मै भी क्रोध करूंगा तो सारा काम बिगड़ जायेगा। इस समय अनुनय-विनय, क्षमा याचना करना ही उचित होगा। यह सोचकर वसुदेव जी कंस के क्रोध को शांत करने के लिए हाथ जोड़ कर बोले-" हे राजन! आप जैसा बली संसार में कोई और नहीं है। सब आपकी छत्र-छाया में बसते है। . बड़े-बड़े भूपति और शूरवीर आपकी वीरता की प्रशंसा करते है। . ऐसे शूरवीर को अबला पर शस्त्र प्रहार करना शोभा नहीं देता। अपनी ही प्रिय और निर्दोष बहिन की हत्या करना तो इस लोक में और परलोक में सर्वत्र निंदनीय और महापाप है। हे राजन! यह संसार नश्वर है। मृत्यु अटल सत्य है. यहाँ जो जन्म लेता है, उसका नश्वर शरीर, कभी न कभी, उसका साथ अवश्य छोड़ देता है। प्रत्येक जीवात्मा को अपने कर्मों के अनुसार फिर से नया शरीर प्राप्त होता है। तब वह पहले शरीर के द्वारा किये गये सभी कर्मों को भूल जाता है और नया शरीर धारण करके इस संसार में पुनः जन्म लेता ह। अपना कल्याण चाहने वालों को किसी से वैर नहीं करना चाहिए। कंस! यह आपकी छोटी बहिन है और अभी बच्ची है। यह आपकी कन्या के समान है और अभी अभी इसका विवाह हुआ है।. ऐसे में इसका वध करना कहाँ तक उचित है?. आप इसे छोड़ दीजिय।"
वसुदेव जी ने कंस को समझाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु वह क्रूर अन्यायी तो अपने संकल्प पर अड़ा था।. उसका हठ देखकर वसुदेव जी सोचने लगे कि बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी बुद्धि-कौशल से अंतिम क्षण तक मृत्यु को टालने का प्रयास करना चाहिए। .इस समय जिस प्रकार भी देवकी के प्राणों की रक्षा हो वही उपाय करना उचित होगा। इस भांति मनमे विचार कर उन्होंने कंस से कहा-" महाराज! देवकी के हाथों तो आपकी मृत्यु होगी नहीं। उससे तो आपको कोई भय है ही नहीं। आकाशवाणी के अनुसार आपकी मृत्यु देवकी के आठवें पुत्र से होगी। किन्तु मैंने निश्चय किया है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न सभी पुत्र आपको सौप दूंगा। यह मेरा वचन है। अब आपको चिंतित और भयभीत होने का कोई कारण नहीं है।" वसुदेव की यह बात कंस ने मान ली और देवकी का वध नहीं किया। वह उदास मन से अपने महल को लौट गया। वसुदेव जी भी देवकी के साथ अपने घर चले गए।
समय आने पर देवकी के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कंस को दिए वचन का पालन करते हुए वसुदेव जी ने उसे कंस के हवाले कर दिया। उस बालक के सौन्दर्य को देख कर कंस मुग्ध हो गया। साथ ही वसुदेव को अपने वचन के प्रति निष्ठावान देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। बालक को लौटाते हुए उसने वसुदेव से कहा -"आप इस नन्हे सुकुमार को अपने घर ले जाइये। इससे मुझे कोई डर नहीं है। आकाशवाणी के अनुसार मेरी मृत्यु तो देवकी के आठवें पुत्र से से होगी। फिर मैं इसका वध क्यों करूँ?" "जैसी आपकी इच्छा"- कहकर वसुदेव जी उस बालक को लेकर आशंकित मन से अपने घर लौट गए.
जो तुम्हारी सेवा में लगे हैं वे भी देवता ही हैं। दैत्यों के अत्याचार से पृथ्वी का भार बढ़ गया है। इसलिए देवताओं की ओर से उनको (दैत्यों को) मारने का उपाय किया जा रहा है। ये सभी तुम्हारे शत्रु हैं। तुम्हे मारने के लिए सभी देवगण मिलकर षड्यंत्र रच रहे है। देवकी के आठवे गर्भ से भगवान विष्णु अवतरित होंगे, यह निश्चित है। परन्तु उसका कौन पुत्र आठवां होगा? यह कोई नहीं जानता। उसका पहला पुत्र आठवां हो सकता है , दूसरा पुत्र आठवां हो सकता है अथवा तीसरा,चौथा, पांचवा आदि में से कोई भी आठवां हो सकता है।" नारदजी कंस को समझाने के लिए उदाहरण स्वरुप एक कमल का फूल ले आए जिसमे गोलाकार आठ पंखुड़ियां थी। उन्होंने बारी-बारी प्रत्येक पंखुड़ी से गणना आरंभ करके उसको यह दिखाया क़ि किस प्रकार हर पंखुड़ी अंतिम और आठवी बनती है।.इसी प्रकार देवकी का कोई भी पुत्र आठवां हो सकता है। नारद जी ने येसा कह कर कंस को भयभीत कर दिया और स्वयं घर वापस चले गये। कंस ने तत्काल अपने सैनिकों को भेजकर, बालक सहित वसुदेव और देवकी को अपने पास बुला लिया। उसने देवकी की गोद से बालक को छीन लिया। उसे पृथ्वी पर पटक कर मार डाला। वसुदेव और -देवकी को हथकड़ी-बेडी से जकड़कर बंदीगृह में डाल दिया। अपने पिता राजा उग्रसेन को भी कैद में डालकर स्वयं वहां का राजा बन बैठा।
कंस स्वयं ही बहुत बली था, दूसरे उसे जरासंध की सहायता प्राप्त थी। जरासंध मगध के शक्तिशाली राजा था। उसके अतिरिक्त प्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशी, धेनकासुर आदि असुरगण तथा वाणासुर, भौमासुर, आदि अनेक बलशाली असुर राजा भी उसके सहायक थे। इन सबको साथ लेकर वह यदुवंशियों को कष्ट देने लगा। कंस के असहनीय अयाचारों के कारण अधिकांश यदुवंशी लोग वहां से भागकर इधर-उधर के दूसरे प्रदेशों में जा बसे। रोहिणी सहित वसुदेव की अन्य पत्नियाँ भी मथुरा छोडकर गोकुल चली गयी। कारागार में वसुदेव और देवकी को कंस ने बहुत कष्ट दिए। दुखित ह्रदय से वे भगवान हरि का स्मरण करते हुए वे समय काटते रहे। देवकी के जब भी कोई पुत्र उत्पन्न होता, कंस बड़ी निर्दयता से उसकी हत्या कर देता। इस प्रकार अन्यायी कंस ने एक एक करके देवकी की छः संतानों को मार डाला। तब सातवें गर्भ में श्रीभगवान के अंश कहे जाने वाले श्रीशेषजी आकर स्थित हुये। . आनंद स्वरुप शेषजी के गर्भ में आते ही माता देवकी को जहाँ एक ओर स्वाभाविक प्रसन्नता हुई वहीं दूसरी ओर कंस द्वारा उस बालक के मारे जाने का डर भी सताने लगा।
जब भगवान ने जाना कि कंस हमारे प्यारे यादवों को बहुत दुःख दे रहा है, तब उन्होंने योगमाया को आज्ञा देते हुए कहा- 'हे देवि! मेरा शेषरूपी अंश देवकी के गर्भ में स्थित है। वसुदेव की रोहिणी नाम की एक अन्य पत्नी भी है। वह ब्रज में नन्द के यहाँ गुप्त रूप से निवास कर रही है।. तुम देवकी के गर्भ को निकालकर उस रोहिणी के उदर में स्थापित कर दो।" भगवान का आदेश मानते हुए योगमाया ने देवकी के गर्भ को रोहिणी के उदर में खिसका दिया। उस बार जब देवकी के संतान उत्पन्न नहीं हुई तो सब ने यही जाना कि देवकी का गर्भ पूरा होने से पहले ही गिर गया। गुप्तचरों ने कंस को भी गर्भ के गिर जाने की सूचना दी। योगमाया ने वसुदेव और देवकी को स्वप्न में बताया कि मैंने तुम्हारा गर्भ रोहिणी को दे दिया है। चिंतित होने का कारण नहीं है। कुछ समय बीतने के बाद श्रवण सुदी चौदह बुधवार को ब्रज में रोहिणी ने एक सुन्दर तेजस्वी बालक को जन्म दिया। उस बालक को भगवान शेष का अवतार कहा जाता ह।. श्रीकृष्ण से पहले अवतीर्ण होने के कारण उसको भगवान के बड़े भाई होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बलवानों में श्रेष्ठ होने के कारण उसे 'बलराम' नाम से ख्याति प्राप्त हुई तथा देवकी के गर्भ से खींचे जाने के कारण वह तरुण वीर 'संकर्षण' नाम से भी प्रसिद्द हुआ. उन्हें अनंत भी कहा जाता है।
दिनों-दिन कंस का आतंक बढ़ता गया। देवकी वसुदेव को नित्य नई यातनाएं झेलनी पड़ रही थी. कंस के अत्याचारों से प्रजा त्राहि-त्राहि कर रही थी। चारों ओर भय और आतंक का वातावरण था। दुर्गति से छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा थ।. सब के चहरे मुरझा चुके थे। कोई महापुरुष इस भयंकर दुर्गति से उबारने के लिए अवश्य अवतरित होगा- आशा की यही किरण सबके ह्रदय को जागृत किये हुए थी। तब दया के सागर, दुखहर्ता, दीनदयाल, भक्तों को अभय करने वाले परमपिता नारायण का ह्रदय द्रवित हो गया। श्रीभगवान ने भूलोक में अवतरित होने की अपनी इच्छा प्रकट करते हुए योगमाया से कहा-"हे देवी कल्याणी ! मैं मथुरा में देवकी के गर्भ से उत्पन्न होउंगा। तुम उसी दिन और उसी घड़ी नन्द के यहाँ यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होना।" "जैसी आपकी आज्ञा"- कहकरयोगमाया यशोदा के गर्भ में स्थापित हो गई।
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भगवान विष्णु देवकी के गर्भ में विराजमान हो गये। तब देवकी का ह्रदय आनंद से भर गया। उनके मुखमंडल पर पवित्र मुसकान छा गई। शरीर की कान्ति से कारागार की अँधेरी कोठरी जगमगाने लगी। पहरेदारों ने जब यह समाचार कंस को सुनाया तब वह तत्काल बंदीगृह जा पहुंचा। देवकी के मुखमंडल पर अचानक अपूर्व तेज देखकर वह भयभीत हो गया। भगवान विष्णु अवतार लेकर मुझे मारेंगे-इस डर से वह कांपने लगा। तब उसके मन में विचार आया-'क्यों न पुत्र उत्पत्ति से पहले ही देवकी की जीवन लीला समाप्त कर दी जाय?' लेकिन लोक निंदा के भय से उसने यह विचार त्याग दिया और पुत्र के पैदा होने की प्रतीक्षा करना ही उचित समझा। 'इसके पुत्र को ही मारूंगा, किन्तु पैदा होने के बाद वसुदेव और देवकी उसको कही छुपा न दें ' -यह सोचकर उसने बंदीगृह की रखवाली करने वालों की संख्या बढ़ा दी और वहां बड़े-बड़े योद्धा तैनात कर दिय। चौकसी के लिएनित स्वयं बंदीगृह जाने लगा। वह इतना भयभीत हो गया कि उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते हर समय उसे कृष्ण रूपी काल ही दिखने देने लगा ।
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भगवान विष्णु देवकी के गर्भ में विराजमान हो गये। तब देवकी का ह्रदय आनंद से भर गया। उनके मुखमंडल पर पवित्र मुसकान छा गई। शरीर की कान्ति से कारागार की अँधेरी कोठरी जगमगाने लगी। पहरेदारों ने जब यह समाचार कंस को सुनाया तब वह तत्काल बंदीगृह जा पहुंचा। देवकी के मुखमंडल पर अचानक अपूर्व तेज देखकर वह भयभीत हो गया। भगवान विष्णु अवतार लेकर मुझे मारेंगे-इस डर से वह कांपने लगा। तब उसके मन में विचार आया-'क्यों न पुत्र उत्पत्ति से पहले ही देवकी की जीवन लीला समाप्त कर दी जाय?' लेकिन लोक निंदा के भय से उसने यह विचार त्याग दिया और पुत्र के पैदा होने की प्रतीक्षा करना ही उचित समझा। 'इसके पुत्र को ही मारूंगा, किन्तु पैदा होने के बाद वसुदेव और देवकी उसको कही छुपा न दें ' -यह सोचकर उसने बंदीगृह की रखवाली करने वालों की संख्या बढ़ा दी और वहां बड़े-बड़े योद्धा तैनात कर दिय। चौकसी के लिएनित स्वयं बंदीगृह जाने लगा। वह इतना भयभीत हो गया कि उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते हर समय उसे कृष्ण रूपी काल ही दिखने देने लगा ।
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भगवान के अविर्भाव का शुभ समय निकट था। रोहिणी नक्षत्र के आगमन के साथ ब्रहांड के सभी ग्रह सौम्य और शांत हो गये। निर्मल आकाश में तारे जगमगाने लगे। भूमंडल पर मंगलमय मनोहर वातावरण उपस्थित हो गया। नगर, गाँव, ब्रज आदि सब बहुत शोभायमान दिखाई देने लगे। दिशाए स्वच्छ सुहावनी और प्रसन्न थीं।मन को आनंदित करने वाली शीतल सुगन्धित पवित्र पवन मंद मंद गति से चलने लगी। नदियों का जल निर्मल हो गया। धाराएं थम गई और उनका कोलाहल शांत हो गया। सरोवरों में रात्रि में कमल खिल गए। वन उपवन के सभी वृक्ष हरी-हरी सुन्दर सुहावनी पत्तियाँ लिये रंग-विरंगे फूलों से लद गए। पक्षी चहचहाने लगे तो भौरे ने गुंजार करना आरंभ कर दिया। साधुजनों के मन प्रसन्नता से खिल उठे। सभी देवगण प्रसन्न हो आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे। गन्धर्व ढोल दमामे बजाकर प्रभु के गुणगान करने लगे, तो उर्वशी आदि सब अप्सराएँ नाचने लगी। अचानक आकाश में घनघोर घटा छा गई और तडातड बिजली चमकने लगी। समुद्र गरजने लगा। रोहिणी नक्षत्र भाद्र पद कृष्ण-पक्ष की अष्टमी अर्धरात्रि में कंस के बंदीगृह में देवकी के गर्भ से चन्द्रमा के समान, सोलह कलाओं से पूर्ण भगवान श्रीहरि भूलोक में अवतरित हुए।उसी समय योगमाया ने गोकुल में नन्द के घर कन्या के रूप में जन्म लिया।
भगवान ने वसुदेव देवकी को अद्भुद रूप में दर्शन दिए। वर्षाकालीन मेघ के समान सुन्दर श्यामल शरीर , कमल के सामान कोमल नयन और सूर्य के समान चमकते हुये घुंघराले बालों वाले, चंद्रमुखी श्रीहरि बहुत शोभायमान हो रहे थे। उनकी चार भुजाएं थी जिनमें शंख चक्र गदा पद्म लिये हुए थे। वे सिर पर स्वर्ण मुकुट, कानों में कुंडल, गले में बैजंती माला, बाँहों में बाजूबंद,कलाइयों में कंकण आदि रत्न जडित आभूषण पहने हुये थे और शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए थे। इस तरह के आकर्षक रूप को देखकर वसुदेव और देवकी अचंभित हो गए। ज्ञान से विचार करने पर उन्होंने जाना कि यह कोई साधारण बालक न होकर आदिपुरुष नारायण हैं। तब वसुदेव जी ने हाथ जोड़ विनती करते हुये कहा-"हे प्रभु! आप साक्षात पुरषोत्तम हैं। हम बहुत भाग्यशाली हैं जो आपने दर्शन देकर हमें जन्म मरण के बंधन से मुक्त कर दिया।" इतना कहकर वसुदेव जी ने भगवान को अपने जीवन की सारी कथा सुनाई और बताया कि पापी कंस ने उनको कैसे कैसे दुःख दिये हैं। तब भगवान श्रीकृष्णचन्द्र बोले-"अब आप निश्चिन्त हो जाओ। मैंने तुम्हारे दुःख दूर करने के लिए ही जन्म लिया है। इस समय गोकुल में नन्द के यहाँ एक कन्या ने जन्म लिया है। मुझे गोकुल पहुंचा दो और उस कन्या को यहाँ ले आओ।"
भगवान ने साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। वसुदेव के मन में अपने पुत्र को लेकर कारागार से बाहर निकलने का विचार आते ही योगमाया ने सभी सैनिकों को सुला दिया। मानो सभी मूर्छा में हो। हथकड़ियाँ टूटकर नीचे गिर गई। बंदीगृह के कपाट स्वतः ही खुल गए। सूप में लेटे हुए त्रिलोकीनाथ को वसुदेव सिर पर उठाकर कारागृह से बाहर आये। सभी बाधाओं को पार करके वे नन्द भवन पहुंचे। वहाँ योगमाया के प्रभाव से सारा गाँव गहरी नींद में डूबा हुआ था। नन्द यशोदा सब निद्रामग्न थे। वसुदेव ने श्रीकृष्ण को यशोदा जी की गोद रख दिया और वहाँ कन्या के रूप लेटी योगमाया को उठा लिया। यशोदा माता को श्रीकृष्ण की उपस्थिति का भान प्रातः काल उठने के बाद हुआ।
सुबह होते ही शुभ समाचार सारे गोकुल में फ़ैल गया कि नन्दबाबा के यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ है। गोकुल गाॉव में खुशियों की लहर दौड़ गई। नन्दजी को जब यह समाचार मिला कि यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है , तो उनके हर्ष की सीमा ना रही। प्रफुल्लित ह्रदय से नन्दराज जी पुत्र का जन्मोत्सव धूम -धाम से मानाने की तयारी में जुट गए। प्रातः काल ज्योतिष ब्राह्मणों को बुलवाकर स्वस्तिवाचन पूर्वक मंगल कार्य कराया। विधिपूर्वक जात-कर्म संस्कार करवाये। पितरों और देवताओं का पूजन करवाया। महामनस्वी नंदराय जी ने ब्राह्मणो को स्वर्ण , आभूषण, वस्त्र, गौएं,आदि अनेक वस्तुएँ दान की। पूरे गोकुल में मिठाइयाँ बाँटी गईं। देवतागण हर्षित हो आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे। आम गोकुलवासी जन्म-समारोह को आकर्षक बनाने में किसी से पीछे नहीं रहे ।गोप-ग्वाले नृत्य करने लगे। जगह जगह ढोल, नगाड़े, मृदंग, वीणा, शंख, दुन्दुभि आदि बजाये जाने लगे। गायक मंगलगीत गाने लगे । सब ओर आनंद ही आनंद दिखाई दे रहा था। प्रफुल्लित गोपियाँ झूम-झूम कर गा रही थीं - नन्द के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की !
क्रमशः