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रविवार, 9 अक्टूबर 2011

रुक्मिणी हरण by Ram Avtar Yadav


रुक्मिणी हरण
अत्याचारी कंस मगध के शक्तिशाली राजा जरासंध का दामाद था. श्रीकृष्ण ने कंस का वध कर दिया था, इससे क्रोधित होकर जरासंध ने यादवो का पूर्ण रूप से विनाश करने  का प्रण किया  और  तेईस अक्षोहिणी सेना लेकर उसने  मथुरा पर चढ़ाई कर दी। किन्तु  यादवो की सेना ने उसे बुरी तरह पराजित कर दिया।  इस प्रकार उसने सत्रह बार मथुरा पर आक्रमण किया और  हर बार उसे हार का मुंह देखना पड़ा. अपने बलबूते उद्देश्य की पूर्ति  होते न देख उसने कालयमन नामक एक अत्यंत  शक्तिशाली राजा को मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया. कालयमन म्लेक्षों का राजा था और वह संसार में दुर्जेय था. यादवों द्वारा न मारे जाने का शंकर जी का दिया हुआ एक वरदान भी उसे प्राप्त था.  कालयमन ने जब विशाल म्लेक्ष सेना के साथ मथुरा पर आक्रमण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने विशवकर्मा को आदेश देकर  रातो -रात सनुद्र के मध्य द्वारिकापुरी नामक एक नगरी का निर्माण करवाया जो विशाल, अभेद्य तथा बहुत ही सुन्दर थी।  योगमाया को आदेश देकर अपने बन्धु - बांधवों को रातों-रात मथुरा से  द्वारकापुरी पहुँचा दिया।  बलराम को मथुरा में ही रहने दिया जिससे वहाँ की शेष प्रजा की रक्षा हो सके।    तदोपरांत श्रीकृष्ण   कोई अस्त्र लिए बिना भ्रमण करते हुए अकेले ही मथुरा के मुख्यद्वार से बाहर निकले. इस तरह बिना हथियार के भगवान को बाहर जाते देखकर   कालयमन  उनको मारने के लिए तीव्रगति से दौड़ पड़ा .  कालयमन को  अपनी ओर आता देखकर लीलामयी भगवान तेजी से भागने लगे. भागते -भागते बहुत दूर निकल गए किन्तु  कालयमन ने पीछा करना नहीं छोड़ा। यह कैसी लीला है कि सबकी रक्षा करने वाले सर्वशक्तिमान  केशव को स्वयं की रक्षा के लिए भागना पड़ रहा है।  कृष्णचंद आगे आगे और कालयवन उनके पीछे-पीछे। भागते भागते पहाड़ों के मध्य उनको एक गुफा दिखाई दी।   मरता क्या न करता,अपने प्राणों की रक्षा के लिए श्रीकेशव झट-पट पहाड़  की उस  गुफा  में जा घुसे।   उस गुफा में मुनि मुचुकुंद जी सोये हुए थे जिन्हें देवताओं से वरदान प्राप्त था कि जाने-अनजाने जो भी उन्हें जगायेगा वह जलकर भस्म हो जाएगा. श्रीकृष्ण तो गुफाके एक कोने में छुपकर बैठ गए। श्रीहरि का पीछा करते हुए कालयवन भी  उसी अँधेरी कन्दरा में जा घुसा. उसने वहां सोये हुए मुनि मुचुकुन्द को श्रीकृष्ण समझ लिया और उन्हें जोर से लात मारी. लात की चोट लगने से मुनिजी जाग गये और उनकी क्रोधित दृष्टि सामने खड़े कालयवन पर पड़ी . उनकी दृष्टि पड़ते ही वह जलकर भस्म हो गया. कालयवन के भस्म हो जाने के पश्चात श्रीकृष्ण मुचुकुन्द के समक्ष आए और उनको परमात्मा प्राप्ति के उपदेश दिए. तत्पश्चात मथुरा वापस आकर बलराम जी को सभी घटनाओं का हाल कह सुनाया. अबतक कालयवन की सेना मथुरा को घेरे खड़ी थी. श्रीकृष्ण बलराम दोनों भाइयों ने मिलकर म्लेक्षों की उस सेना का संहार किया और उनका सारा धन लेकर द्वारिका पुरी पहुंचा दिया. जब श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार म्लेक्ष सेना से आभूषण आदि धन लेकर मनुष्य द्वारकापुरी जा रहे थे उसी समय जरासंध पुनः (अठारवीं बार) तेईस अक्षोहणी सेना लेकर मथुरा पर चढ़ आया. श्रीकृष्ण और बलरामजी के मन में जरासंध का तनिक भी भय न था फिर भी भय होने का नाटक करते हुए वे अनेक योजनों तक कमलदल के समान सुकोमल चरणों से पैदल भागते चले गये. उन दोनों को भागते देख जरासंध हंसने लगा तथा रथों की सेना लेकर उनके पीछे दौड़ा. बहुत दूर तक दौड़ने के कारण दोनों भाई थक कर 'प्रवर्षण' पर्वत पर चढ़ गये. उस पर्वत का "प्रवर्षण" नाम इस लिए था कि वहां सदा ही देवराज इंद्र प्रतिदिन वर्षा करते थे. पर्वत पर चढ़ा जानकर जरासंध ने दोनों भाइयों को वहां बहुत ढूँढा परन्तु उनको कहीं न पाया. इससे व्याकुल होकर उसने पर्वत के चारों ओर ईंधन रखकर आग लगवा दी. आग की भयानक लपटे बहुत तेजी से चारों दिशाओं में फैलती हुई पर्वत की चोटी तक जा दहकी तब श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई ग्यारह योजन (चौवालिस कोस) ऊंचे पर्वत शिखर से उछलकर नीचे पृथ्वी पर कूद पड़े. जरासंध अथवा उसके किसी भी सेवक ने उन दोनों भाइयों को नहीं देखा. दोनों भाई वहां से चलकर द्वारकापुरी में आय बिराजे. जरासंध उनको पर्वत पर भस्म हुआ जानकर अपनी सेना साथ ले मगध देश को वापस चला गया.

इस बीच बलरामजी का विवाह आनर्त देश के राजा रैवत की कन्या रेवती से हो गया था. उधर भगवान श्रीकृष्ण कुण्डिनपुर नगर के भीष्मक नामक नरेश की कन्या रुक्मिणी का हरण करके द्वारिकापुरी ले आए और वहां उससे ब्याह कर लिया. परमसुंदरी रुक्मिणी का हरणकर कैसे किया और किस रीति से द्वारिकापुरी ले आए इसका हाल आगे की पंक्तियों में दिया गया है:-
विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक बड़े यशस्वी राजा थे. उनके रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मवाहु, रुक्मेश और रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र थे और रुक्मिणी नामक एक पुत्री भी थी. महाराज भीष्मक के घर नारद आदि महात्माजनों का आना - जाना रहता था. महात्माजन प्रायः भगवान श्रीकृष्ण के रूप-रंग, पराक्रम, गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी वैभव आदि की प्रशंसा किया करते थे. उनके मुख से प्रशंसा सुनकर रुक्मिणी जी भगवान श्रीकृष्ण को मन ही मन अपना पति मानने लग गई थी. उधर श्रीकृष्ण भी रुक्मिणी जी को रूपवती, बुद्धिमती, उदार तथा शील -स्वाभाव गुणों से भरपूर समझते हुए सब प्रकार से अपने योग्य मानते थे इसलिए उन्ही से विवाह करना चाहते थे. रुक्मिणी के माता, पिता, भ्राता सभी उसका विवाह श्रीकृष्ण से ही करने की इच्छा रखते थे परन्तु भीष्मक का ज्येष्ठ पुत्र रुक्म श्रीकृष्ण से बड़ा द्वेष रखता था इसलिए उसने अपनी बहन का विवाह श्रीकृष्ण से होने से रोक दिया. उसने रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से करने का निश्चय किया.

जब रुक्मिणी को इस बात का पता लगा तो वह अत्यंत उदास हो गई. उसने शीघ्र ही एक विश्वासपात्र ब्राहमण को बुलवाया और उसे एक पत्र देकर द्वारिकापुरी श्रीकृष्ण के पास भेज दिया. ब्राहमणदेवता ने द्वारिका पहुँचकर द्वारपालों की आज्ञा लेकर राजभवन में पवेश किया और वहां स्वर्ण सिंहासन पर बिराजमान आदिपुरुष भगवान के दर्शन किए. श्रीकृष्ण ने यथोचित सेवा सत्कार करने के उपरांत उनके आने का कारण पूछा, तब ब्राहमणदेवता ने वहां का सारा वृतांत कह सुनाया और रुक्मिणी जी का भेजा हुआ प्रेमपूर्ण-पत्र पढ़कर सुनाया. पत्र में रुक्मिणी जी ने लिखा था - "हे प्रेम स्वरुप श्यामसुंदर ! हे प्रियतम ! मैंने आपको पति के रूप में वरण किया है. मैंने अपनी आत्मा और मन दोनों आपको अर्पण कर दिया है. हे कमलनाथ ! अब मै आप जैसे वीरवर की पत्नी हूँ, कहीं आपसे पहले शिशुपाल या अन्य कोई पुरुष मुझे स्पर्श न कर सके, आप इसका उपाय कीजिये." तदोपरांत ब्राहमण देवता ने श्रीहरि से कहा - "हे यदुकुलशिरोमणि ! रुक्मिणीजी का यही अत्यंत गोपनीय सन्देश है जिसे लेकर मै आपके पास आया हूँ. इस सम्बन्ध में जो करना हो विचार करके तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये."

केवल दो दिन बाद ही रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से होने वाला था. यह सोचकर श्रीकृष्ण ने उग्रसेन से आज्ञा ले उस ब्राहमणदेवता को अपने साथ बैठाकर तीव्रगति से रथ दौडाते हुए संध्या तक विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर पहुँच गये और वहां राजा भीष्मक की राजबाड़ी में डेरा किया. वहां पहुंचे तो देखते है कि महाराज भीष्मक अपने बड़े पुत्र रुक्म के स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपाल को देने के लिए विवाहोत्सव की तयारी करा रहे हैं . जगह जगह ब्याह की सामाग्री रखी है, घर-घर आनंद मंगल हो रहा है, वहां के स्त्री-पुरुष पुष्प, माला, इत्र -फुलेल, गहने, निर्मल-वस्त्र आदि से सजे हुए है. नगर के राजमार्गों , सड़कों, गलियों, चौराहों आदि को खूब सजाया गया है जिससे नगर कि छवि बहुत शोभायमान हो रही है.
अभी तक भगवान श्रीकृष्ण के कुण्डिनपुर आगमन का समाचार राजकुमारी रुक्मिणी को नहीं मिला था इस कारण वह बहुत चिंतित और अधीर हो रही थी. इतने में ब्राहमणदेवता श्रीकृष्ण से आज्ञा लेकर रुक्मिणी के पास पहुँच गए
और श्रीकृष्ण के वहां आगमन की जानकारी दी. भगवान के शुभागमन का समाचार सुनकर रुक्मिणी का ह्रदय आनंद से भर गया.

शिशुपाल की बारात कुण्डिनपुर पहुँच चुकी थी. बारात में शाल्व, जरासंध, दन्तवक्र, विदूरथ, पौन्ड्रक आदि सहस्त्रों नृपति शामिल थे. वे सभी श्रीकृष्ण और बलराम के विरोधी थे. इनको श्रीकृष्ण के वहां आने और रुक्मिणी को हर ले जाने की सूचना भी मिल चुकी थी. इसलिए कृष्ण को रोकने के लिए वे सभी अपनी अपनी सेना को साथ लेकर आए थे. इधर जब बलराम जी को यह सूचना मिली कि रुक्मिणी को लाने के लिए श्रीकृष्ण अकेले ही कुण्डिनपुर गए हैं और वहां विरोधी पक्ष के सारे राजा-लोग उपस्थित है तो वे भी अपनी सेना लेकर तीव्रगति से रथ चलाकर वहां पहुँच गए और श्रीकृष्ण के साथ हो लिए.

जब विवाह होने में एक दिन शेष रह गया था, उस समय राजकुमारी रुक्मिणी तत्कालोचित मंगलाचार से संपन्न हो देवी अम्बिका के दर्शनार्थ चार घोड़ों से जुते हुए रथ पर बैठकर राजमहल से बाहर निकली. बहुत से शूरवीर अस्त्र-शास्त्र लिए उनकी रक्षा में तैनात थे. वे स्वयं मौन थी. अनेकों श्रेष्ट वृद्ध महिलाऐं तथा सखी-सहेलियां सब ओर से उन्हें घेरे हुए थीं. बाजे वाले बाजे बजाते हुए, गवैये गीत गाते हुए और बहुत सी वेश्याएं नाचती हुई साथ चल रही थीं. पुष्प-माला चन्दन आदि अनेक प्रकार की पूजा की सामग्री लिए हुए बहुत सी द्विज-पत्नियां भी साथ चल रही थीं. इस प्रकार मंदिर पहुंचकर कमल के समान सुकोमल हाथ - पैर धोकर आचमन कर वे देवी अम्बिका के पास गईं. द्विज-पत्नियों ने उनसे अम्बिकाजी का पूजन करवाया. तत्पश्चात राजकुमारी रुक्मिणी ने ब्राहमण-पत्नियों और माता अम्बिका को नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया. उसके बाद मौन तोड़ दिया और एक सहेली का हाथ पकड़ कर वे मंदिर से बाहर निकलीं. उसी समय श्रीकृष्ण सहसा वहां पहुँच गए और राजकुमारी को उठा लिया . उन्हें गरुण चिन्ह वाले अपने रथ पर बैठाकर बलराम आदि यदुवंशियों के साथ वहां से चल पड़े. उस समय जरासंध के वश में रहने वाले अभिमानी राजा इस घटना से प्राप्त हुए अपने पराभव और यश-कीर्ति का नाश सहन नहीं कर सके. पौड्रक, विदूरथ, दन्तवक्र, शाल्व, जरासंध आदि शिशुपाल के पक्षवाले सब के सब राजा क्रोध से आग बबूला हो उठे तथा अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित होकर अपनी-अपनी सेना के साथ महामनस्वी यादवों के समक्ष युद्ध के लिए आ पहुंचे.
शत्रुदल को तीव्र गति से अपनी ओर आता देख यदुवंशियों के सेनापतियों ने भी अपने-अपने अस्त्र संभाल लिए और पीछे की ओर मुडकर अरिदल के सामने आ डटे. जरासंध की सेना के लोग धनुर्वेद के बड़े मर्मज्ञ थे. वे यदुवंशियों पर येसी जोरदार वाणों की वर्षा करने लगे जिससे वहां अन्धकार सा छा गया. उस समय रुक्मिणीजी बहुत भयभीत और विह्वल हो लज्जा सहित श्रीकृष्ण के मुख की ओर देखने लगीं , तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें उत्साहित करते हुए कहा - "सुबदने! डरो मत, हमारी सेना प्रबल है शत्रुओं का नाश कर देगी."

बलराम, गद आदि यदुवंशीवीर जब शत्रुओं का पराक्रम और अधिक नहीं सहन कर सके, तब उन्होंने विरोधियों पर वाणों से भीषण प्रहार आरम्भ कर दिया. बलदेव जी के छोटे भाई गद के भीषण वाणों की वर्षा से शत्रु के रथी , घुड़सवार, हाथी-सवार आदि करोड़ों योद्धा अंग विदीर्ण होकर अथवा प्रण -विहीन होकर पृथ्वी पर आ गिरे. अनगिनत घोड़े और सारथि मारे गए. हाथी घायल होकर पृथ्वी पर लोटने लगे. इस प्रकार अपनी सेना का संहार होते देख जरासंध आदि समस्त राजा युद्ध से विमुख होकर भाग गए. अपनी भावी पत्नी का इस तरह अपहरण हो जाने के कारण दुखित शिशुपाल अत्यंत निस्तेज एवं हतोत्साहित हो गया. तब जरासंध आदि राजा उसके पास जाकर बोले - "हे सिंहपुरुष ! इस उदासी को त्याग दीजिये. यह जगत दैव की प्रेरणा से काल के वश में है. इस समय दैव यादवों के अनुकूल है इसलिए हम विशाल-शातिशाली सेना के अधिपति होते हुए भी थोड़ी सी सेना वाले कृष्ण से हार गए. जब दैव हमारे अनुकूल होगा, तब हम द्वारिका जाकर कृष्ण को बाँध लेंगें और प्रिथ्वी को यादव-विहीन कर डालेंगे." इस प्रकार जब उसके मित्रों ने समझाया तब शिशुपाल अनुचरों सहित घर को लौट गया. जीवित बचे हुए राजा भी अपने-अपने नगरो को लौट गये.

रक्मिणी का ज्येष्ठ भ्राता रुक्मी श्रीकृष्ण से द्वेष रखता था. वह अपनी बहन के इस आसुरी विवाह को सहन नहीं कर सका. उसने वहां उपस्थित सभी राजाओं के मध्य प्रण किया- "मै संग्राम में श्रीकृष्ण को मरकर रुक्मिणी को लौटाए बिना अपनी राजधानी कुण्डिनपुर में प्रवेश नहीं करूंगा." वह दो अक्षोहिणी सेना लेकर श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ा और बार-बार धनुष टंकार करता हुआ ,कठोर वचन बोलता हुआ श्रीकृष्ण के समक्ष जा पहुंचा. वहां उसने वाणों से ऐसा भीषण प्रहार किया जिससे श्रीहरि घायल हो गये. तब श्रीकृष्ण ने वाणों के द्वारा उसके धनुष के दो टुकड़े कर दिए. फिर उसने श्रीहरि के ऊपर महाशक्ति चलाई . भगवान ने प्रतिप्रहार करके उस शक्ति के भी दो टुकड़े कर दिए. उस खंडित शक्ति ने रुक्मी के सारथि को ही मार डाला. फिर उसने त्रिशूल, गदा, खंग, बरछा आदि जो भी अस्त्र श्रीकृष्ण को मारने के लिए हाथ में लिए प्रभु ने वे सब काट गिराए. अंत में भगवान श्रीकृष्ण अपनी पैनी धार वाली तलवार हाथ में लेकर रुक्म को मारने को उद्यत हुए. भाई के मारने का उद्योग देखकर भय से विह्वल हुई रुक्मिणी अपने नेत्रों में आंसू भरकर भगवान् के चरणों में गिर अपने भाई के प्राणों भीख मांगने लगी. रुक्मिणी को चरणों में गिरी हुई देखकर दयालु भगवान ने रुक्मी को नहीं मारा. फिर भी रुक्मी उनके अनिष्ट के चेष्टा से विमुख न हुआ. तब भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्म को वस्त्र से बांधकर उसकी दाढ़ी, मूंछ तथा केश कई जगह से मूंडकर उसे कुरूप कर दिया और रथ के पीछे बाँध लिया. इतने में ही बलराम आदि यदुवंशीवीरों ने रुक्म की सेना का विध्वंश करके श्रीकृष्ण के पास आए. वहां रुक्म की दशा देखकर बलरामजी ने दया करके उसको बंधन से छोड़ दिया.

इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण तमाम राजाओ को जीतकर विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणीजी को द्वारिका में लाकर विधिपूर्वक उनसे विवाह किया. द्वारिकापुरी में उस समय घर -घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा. भगवती लक्ष्मीजी को रुक्मिणीजी के रूप में साक्षात लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण के साथ देखकर द्वारिकावासी नर-नारियों को परम आनंद हुआ

जय श्रीकृष्ण
!

शनिवार, 28 मई 2011

Dr.Ram Baran Yadav, President of Nepal.

Dr. Ram Baran Yadav, President of Nepal. Dr. Ram Baran Yadav is the current President of Nepal. He was born on February 4, 1948 in a small village of Sapahi in Dhanusha District in the Terai of Nepal. He received his schooling and higher education in Kathmandu. He completed his MBBS from Calcutta Medical College in India and went on to receive his MD from Post Graduate Institute of Medical Research in Chandigarh of India.
He was elected the first president of Nepal on 23rd July, 2008 defeating his nearest rival Ram Raja Prasad Singh a candidate from Communist Party of Nepal (Moist). Earlier, in the 1991-94 Dr. Yadav was the Minister of State for Health in Nepali Congress government. He was selected to the House of Represenatives in the 1999 election as a candidate of Nepali Congress and became minister of Health after that election.

शुक्रवार, 27 मई 2011

साहसिक कार्य





Santosh Yadav, Mountaineer



Santosh Yadav is one of world famous mountaineers. She is first woman in the world to climb mount Everest twice in a year and also the first woman to successfully climb mount everest from Kangshung face.





Khashab Dadasahab Jadhav (K.D. Jadhav),
Wrestler

Khashab Dadasahab Jadhav or K.D.Jadhav is a famous wrestler. He was born in Goleshwar village in Satna District on January 15, 1926. He was the first individual olympic medalist of independent India when he won free-style wrestling bronze medal at Helsinki games. For nearly half a century, he would remain individual medalist for india at the olympics until Leander Paec won bronze in 1996.





Narsingh Yadav, Wrestler

Narsingh Yadav is a wrestler. He won gold medal in 2010 Commonwealth games in men's free style 74 kg. wrestling.

























बुधवार, 25 मई 2011

यदुवंशीय उपमुख्यमंत्री


Siddaramaiah Former Deputy Chief Minister of Karnatka.


Siddaramaiah was born on August 12, 1948 in a village Varuna Hobli of Mysore District. Presently he is leader of opposition of the Karnatka Legislative Assembly. Earlier he was Deputy Chief Minister of Karnatka.







Subhash Yadav, Former Dy. Chief Minister of Madhya Pradesh.

गुरुवार, 19 मई 2011

श्री बी.पी मंडल



Shri B.P.Mandal(Bindeshwari Prasad Mandal) was born in Gwala family in Banaras. He was son of Sh. Ras Bihari Mandal. He was Member of Parliament from 1967 to 1970 and again from 1977 to 1979. He was also Chief Minister of Bihar in 1968. He was the Chairman of 2nd Backward Commission (popularly known as Mandal Commission).

लालू प्रसाद यादव, बिहार के भू.पू.मुख्यमंत्री

 
लालू प्रसाद यादव का जन्म ११ जून १९४७ को बिहार के गोपलगंज जिले के फुलवरिया गांव मे  एक यादव परिवार मे हुआ । उनके पिता का नाम कुंदन राय और माता का नाम मरचिया देवी है। लालू प्रसाद यादव का विवाह 1 जून 1973 को राबडी देवी से हुआ।  उनके सात बेटियां और दो बेटे है जिनमे से सभी बेटियों की शादी हो चुकी है।उनकी  प्रारंभिक शिक्षा पारिवारिक देखरेख   मे गोपालगंज से पूरी  हुई किंतु उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हे  पटना जाना पड़ा। पटना के  बी. एन. कालेज से एल. एल. बी. तथा राजनीतिक शास्त्र मे एम. ए. की डिग्री हासील की ।

राबडी देवी ,बिहार की भू.पू मुख्यमंत्री

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विश्वास  नही होता कि राजनीती के दाँव पेचों से बिलकुल  अनभिज्ञ, अनुभवहीन गृहणी,  भारत के दूसरे  सबसे बड़े प्रान्त की मुख्यमंत्री बन बैठेगी । हाँ ऐसा ही हुआ,  यह सपना नही सच्चाई है, यादव घराने की एक महिला राबड़ी देवी ने यह अद्भुद कारनामा कर दिखाया।  इसे महज संयोग कहिये या फिर किस्मत का खेल,   25 जुलाई  1997 को  कोई प्रयास किये बिना ही राबडी देवी को  बिहार के   मुख्यमंत्री की कुर्सी प्राप्त हो गई । इस प्रकार जहाँ  उन्हे बिहार प्रांत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ वहीँ   देश  की प्रथम यदुवंशीय महिला मुख्यमंत्री होने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ ।

राबड़ी देवी जाने माने  राष्ट्रीय नेता लालू प्रसाद यादव   की पत्नी हैं।  उनका जन्म सन 1959 में गोपालगंज जिले के रहने वाले शिव प्रसाद चौधरी के घर हुआ था।  उनका विवाह 14 वर्ष की आयु में लालू प्रसाद यादव के साथ हुआ।  उनके दो बेटे और नौ बेटियां हैं ।1997 में चारा' घोटाले' केस  के तहत  बिहार के तत्कालीन मुख्यमन्त्री   लालू प्रसाद  यादव को जब जेल जाना पड़ा तो उस समय वे अपना पदभार राबड़ी देवी  को  सम्भाल गये थे। अनुभवहीन  होने के उपरांत भी अपने पति की लोकप्रियता के बल पर लगभग आठ वर्षो तक वे बिहार की मुखिया बनीं रहीं। मुख्यमंत्री पद पर आसीन रहने की अवधि इस प्रकार है :
                    
                              1.  25 जुलाई 1997 से 11 फरवरी 1999 तक
                              2.  9 मार्च  1999 से 2 मार्च 2000 तक
                              3. 11 मार्च 2000 से 6 मार्च 2005 तक



Mulayam Singh Yadav Former Chief Minister of Uttar Pradesh



मुलायम सिंह यादव को भारतीय राजनीति मे विशिष्ट स्थान प्राप्त है।वे  बहुत ही लोकप्रिय राष्ट्रीय नेता हैं। प्यार से लोग उन्हें  "नेता जी"  कहते हैं।वे देश के सर्वाधिक  जनसँख्या वाले प्रान्त  उत्तर प्रदेश के    तीन बार मुख्यमंत्री और एक बार केंद्र सरकार  में  रक्षा मंत्री रह चुके हैं।  वे समाजवादी पार्टी के वर्तमान  राष्ट्रीय अध्यक्ष भी  हैं।  उनका जन्म 22 नवम्बर, 1939  मे  उत्तर-प्रदेश के  इटावा जिले मे सैफ़ई गाँव के एक संपन्न  कृषक  परिवार में  हुआ  था।  उनके पिता का नाम सुघर सिंह और माता का नाम मूर्ती देवी है । उनके चार भाई और एक बहन है।  भाइयों  के  नाम हैं -रतन सिंह यादव , अभयराम सिंह यादव, शिवपाल सिंह यादव और रामगोपाल सिंह यादव  तथा   बहन का नाम  कमला देवी है ।   रतन सिंह आयु मे उनसे बडे हैं त्तथा  अन्य  भाई बहन  उनसे छोटे। मुलायम सिंह ने दो विवाह किये । उनकी पहली पत्नी का नाम था मालती देवी ।  अखिलेश यादव का जन्म उन्ही   के गर्भ से हुआ था ।  अखिलेश छोटे ही थे कि  उनकी  माता   का देहांत हो गया ।   मुलायम सिंह ने साधना गुप्ता नामक स्त्री से दूसरा  विवाह कर लिया था।   साधना के गर्भ से भी एक पुत्र  उत्त्पन्न हुआ जिसका नाम  है प्रतीक यादव । मुलायम सिंह ने आगरा विश्वविद्यालय से स्नात्तकोतर डिग्री और जैन इंटर कालेज, करहल (मैनपुरी) से बी. टी. की डिग्री प्राप्त की है। 

मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक सफर  1950 के दशक के दौरान तब आरम्भ हुआ जब वे  महान समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया की विचारधारा से प्रभावित  होकर उनके द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में शामिल होकर  किसानो, पिछड़े वर्ग, और दलितो की सेवा तथा  उनकी उन्नति और उत्थान  के कार्य मे जुट गए ।  1967 मे  वे पहली बार विधान सभा सदस्य चुने  गए। निम्न-लिखित कालावधि तक वे तीन बार उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे -
                    पहली बार-       5 दिसम्बर 1989  से 24 जून 1991 तक    
                    दुसरी बार   -    5 दिसम्बर 1993 से 3 जून 1995 तक
                    तीसरी बार -    29 अगस्त 2003 से 11 मई 2007
                    जून 1996  से   मार्च 1998 तक वे केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री  रहे। 






                 



















Rao Birender Singh

Rao Birender Singh, 2nd Chief Minister of Haryana State and 1st Speaker of Haryana Vidhan Sabha was born on 2oth February, 1921 in the village of Nangal Pathani. He was direct descendent of Rao Tula Ram, the most important leader of 1857 Revolt in Haryana.

Ram Naresh Yadav

Ram Naresh Yadav, Former Chief Minister of Uttar Pradesh.

चौधरी ब्रह्मप्रकाश, दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री

Chaudhary Brahm Prakash, 1st C.M. of Delhi.


श्री दरोगा प्रसाद राय,बिहार के भू.पू.मुख्यमंत्री



Sh. Daroga Prasad Rai born on 2 September, 1922. He was one of the great leaders of Bihar born Yadav family. He was the Chief Minister of Bihar from February 1970 to December, 1970.

श्री बाबूलाल गौर, मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री



Shri Babu Lal Gaur, Former Chief Minister of Madhya Pradesh, was born in a Yadav family at Naugir Village in Pratapgarh District in U.P. He served as Chief Minister of Madhya Pradesh from August 2004 to November, 2005. He is a member Bhartiya Janta Party

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

हैहय वन्शीय अर्जुन



हैहय वन्शीय अर्जुन

महाभारत के मुख्य पात्र धनञ्जय, पार्थ आदि नामो से विख्यात वीर योद्धा, महान धनुर्धर कुन्ती पुत्र अर्जुन को कौन नही जानता? परन्तु यहा वर्णित जीवन चरित्र उन गाण्डीवधारी अर्जुन का नही है बल्कि उनसे सदियो पूर्व यदुपुत्र-सहस्त्रजित के कुल मे उत्पन्न हैहय वन्शीय अर्जुन का है। जिन्हे सहस्त्रार्जुन अथवा कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से भी जाना जाता है।

वे सहस्त्र (हजार) भुजाओ से युक्त थे तथा संपूर्ण पृथ्वी को जीतकर सातो द्वीपो के राजा हुए येसा कहा जाता है। उनका संक्षिप्त जीवन चरित्र इस प्रकार है:
यदु के पांच पुत्र* हुए-१.सहस्त्रद या सहस्त्रजित, २. पयोद, ३. क्रोष्टा, ४. नील या नल और ५.अंजिक। इनमे से सहस्त्रद और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया क्रोष्टा कुल में भगवान् श्री कृष्ण अवतरित हुए तथा सहस्त्रद या सहस्त्रजित के कुल मे सहस्त्रार्जुन, भोज, तालजंघ, मधु आदि हुए थे। सहस्त्रजित के तीन पुत्र हुये- हैहय,हय और वेणुहय। हैहय का पुत्र धर्मनेत्र हुआ, धर्मनेत्र के कार्त, कार्त के सहजित, सहजित के पुत्र राजा महिष्मान हुए जिन्होने माहिष्मतीपुरी बसायी। महिष्मान से भद्र्श्रेण्य हुए जो वाराणसी पुरी के अधिपति कहे गये है। भद्र्श्रेण्य के पुत्र का नाम दुर्दुम था। दुर्दुम से कनक हुए, जो बुद्धिमान और बलवान थे। कनक के चार पुत्र हुए-कृतवीर्य, कृतौजा, कृतवर्मा और कृताग्नि। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातो द्वीपो का एकछत्र सम्राट था। उसने अकेले ही अपनी सहस्त्र भुजाओ के बल से संपूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था।

कृतवीर्यकुमार अर्जुन ने दस हजार वर्षो तक घोर तपस्या करके अत्रि पुत्र दत्तात्रेय की आराधना की। इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान दत्तात्रेय ने अर्जुन को वर मागने को कहा तो उसने चार वर मागे थे:-" पहला- युद्धरत होने पर मेरी सहस्त्र भुजाए हो जाये", दूसरा -"यदि कभी मै अधर्म कार्य मे प्रवृत्त होऊ तो वहा साधु पुरुष आकार रोक दे", तीसरा- "मै युद्ध के द्वारा पृथ्वी को जीतकर धर्म का पालन करते हुए प्रजा को प्रसन्न रखू" और चौथा वर इस प्रकार था - " मै बहुत से संग्राम करके सहस्त्रो शत्रुओ को मौत के घाट उतारकर संग्राम के मध्य अपने से अधिक शक्तिशाली द्वारा वध को प्राप्त होऊ"। इन चार वरदानो के फल्स्वरूप् युद्ध की कल्पना मात्र से अर्जुन के एक सहस्त्र भुजाएं प्रकट हो जाती थी। उनके बलपर उसने सहस्त्रो शत्रुओ को मौत के घाट उतार कर द्वीप, समुद्र और नगरो सहित पृथ्वी को युद्ध के द्वारा जीत लिया था। संसार का कोई भी सम्राट पराक्रम, विजय, यज्ञ, दान, तपस्या , योग, शास्त्रज्ञान आदि गुणो मे कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नही कर सकता था। वह योगी था इसलिए ढाल-तलवार,धनुष-वाण और रथ लिए सातो द्वीपों में प्रजा की रक्षा हेतु सदा विचरता दिखाई देता था। वह यज्ञो और खेतों की रक्षा करता था। अपने योग-बल से मेघ बनकर अवश्यकतानुसार वर्षा कर लेता था। उसके राज्य मे कभी कोइ चीज नष्ट नही होती थी । प्रजा सब प्रकार से खुशहाल थी।

एक बार अर्जुन ने अभिमान से भरे हुए रावण को अपने पांच ही वाणो द्वारा सेना सहित मूर्छित करके बन्दी बना लिया था। यह सुनकर रावण के प्रपिता महर्षि पुलत्स्य वहा गये और अर्जुन से मिले। पुलस्त्य मुनि के प्रार्थना करने पर उसने रावण को मुक्त कर दिया था।श्री रामचरित मानस के लंका काण्ड में "अंगद-रावण सम्बाद " के अंतर्गत  इस आशय की एक चौपाई   विद्यमान है। जब  सीता माता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए श्रीराम  अंगद को शांतिदूत बनाकर लंका भेजते  हैं, अहंकारी रावण अपने बल का बखान करते हुए   अंगद को डराने  का  प्रयत्न करता है , उस  समय अंगद उसके कमजोर  बल का उदाहरण देते हुए कहते हैं :


"एक बहोरि सहस भुज देखा।  धाइ धरा जिमि जंतु बिशेखा। 
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति  मुनि जाइ छोड़ावा। "

भावार्थ है कि  एक बार रावण सहस्त्रबाहु को मिला। उसने दौड़ कर रावण को अद्भुद जीव की तरह   पकड़ लिया और तमाशे के लिए उसे अपने घर ले आया। उसको पुलस्त्य मुनि ने जाकर छुड़वाया था। 


कार्तवीर्य अर्जुन पचासी हजार वर्षो तक सब प्रकार के रत्नो से संपन्न चक्रवर्ती सम्राट रहा तथा अक्षय विषयो का भोग करता रहा। इस बीच न तो उसका बल क्षीण हुआ और न हि उसके धन का नाश हुआ। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या, उसका यैसा प्रभाव था कि उसके स्मरण मात्र से ही दूसरो का खोया हुआ धन मिल जाता था।

एक बार भूखे - प्यासे अग्निदेव ने राजा अर्जुन से भिक्षा मागी। तब उस वीर ने अपना सारा राज्य अग्निदेव को भिक्षा मे दे दिया। भिक्षा पाकर अग्निदेव अर्जुन की सहायता से उसके सारे राज्य के पर्वतो, वनो आदि को जला दिया। उन्होने आपव नाम से विख्यात महर्षि वसिष्ठ का सूना आश्रम भी जला दिया। महर्षि वसिष्ठ का सूना आश्रम जला दिया गाय था, इसलिये उन्होने सहस्त्राजुन को शाप दे दिया- " हैहय! तुने मेरे इस आश्रम को भी जलाये बिना न छोडा, तुझे दूसरा वीर पराजित करके मौत के घाट उतार देगा"। दत्तात्रेय ने भी उसे इस प्रकार की मृत्यु का वरदान दिया था। वसिष्ठमुनि के शाप के कारण भगवान शन्कर के अन्शावतार परशुराम जी ने कार्तवीर्यकुमार अर्जुन का वध किया था।

अर्जुन के हजारो पुत्र थे। उनमे से केवल पाच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम की क्रोधाग्नि मे नष्ट हो गये थे। बचे हुए पुत्रो मे जयेष्ठ पुत्र का नाम जय ध्वज था। जय्ध्वज के पुत्र का नाम तालजङ्घ था। तालजङ्घ का पुत्र वीतिहोत्र हुआ वीतिहोत्र से मधु हुए। मधु के वन्शज् माधव कहलाये।

* ( विभिन्न हिन्दू धर्म- ग्रन्थ यदु के पुत्रो की संख्या के बारे मे एकमत नही है। कई ग्रन्थो मे इनकी संख्या चार बतायी गई है तो कई मे पांच । उनके नामो मे भी भिन्नता है)

शनिवार, 15 जनवरी 2011

महर्षि अत्रि - राम अवतार यादव



परमपिता नारायण ने सृष्टि उत्पति के उद्देश्य से ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया. ब्रह्मा से अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ. , अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए. यदु से यदु (यादव) वंश चला. यदु की कई पीढ़ियों के बाद यदुकुल शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण मानव रूप में अवतरित हुए.)

महा-ऋषि अत्रि कौन थे इसका संक्षिप्त उल्लेख नीचे है:-


महर्षि अत्रि
हरिवंश पुराण के अनुसार सृष्टि रचना के उद्देश्य से महातेजस्वी ब्रह्मा ने सात मानस पुत्र उत्त्पन्न किये जिनके नाम हैं- मारीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ और कौशिक. श्रीमदभगवत-सुधा सागर (शुक सागर) में ब्रह्मा के दस मानस पुत्रो का वर्णन है, उनके नाम-मरीचि , अत्रि,अंगीरा, पुलस्त्य,पुलह, क्रतु,भृगु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद हैं. इन महाऋषियों के बिभिन्न बड़े-बड़े दिव्य वंश हैं. महर्षि अत्रि एक वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि थे। पुराणों के अनुसार इनका जन्म ब्रह्मा जी के नेत्र या मस्तक से हुआ था। सप्तर्षियों में महर्षि अत्रि की भी गणना होती है। वैवस्वत मन्वन्तर में अत्रि एक प्रजापति थे। इनकी पत्नी कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री थीं और उनका नाम अनुसुया था. महर्षि अत्रि अपने नाम के अनुसार त्रिगुणातीत परम भक्त थे, वैसे ही अनुसूया भी भक्ति मती थी. वे चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे. इस दम्पति को जब ब्रह्मा जी ने कहा कि सृष्टिवर्द्धन करो तो इन्होने सृष्टिवर्द्धन करने से पहले तपस्या करने का निश्चय किया और घोर तपस्या की. श्रधापूर्वक दीर्घकाल तक निरंतर साधना और प्रेम से आकृष्ट होकर ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों ही देवता प्रत्यक्ष उपस्थित हुए और वरदान मांगने को कहा. ब्रह्मा की आज्ञा सृष्टि वद्धन की थी और वे सामने खड़े थे. तब इन्होने कोइ और वरदान न मांगकर उन्ही तीनों को पुत्र रूप में माँगा. त्रिदेवों ने इनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए 'एवमस्तु" कहा और समय पर इनके पुत्र के रूप में अवतार ग्रहण किया. विष्णु के रूप में "दत्रात्रेय", ब्रह्मा के अंश से "चंद्रमा", और भगवान् शंकर के अंश से "दुर्वाषा" का जन्म हुआ.

( ब्रह्मा से अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ., अत्रि दम्पति से चंद्रमा नामक पुत्र का जन्म हुआ. चंद्रमा से चन्द्र वंश चला. चन्द्र वंश में आगे चलकर यदु का जन्म हुआ. यदु से यादव वंश चला.)



चंद्रमा

चंद्रमा के पिता महा ऋषि अत्रि का संक्षिप वर्णन पिछले पृष्ठ में किया है. चंद्रमा के बारे में संक्षिप्त वर्णन यहाँ प्रस्तुत है:

अत्रि का पुत्र चंद्रमा था जिसे प्रजापति ब्रह्मा ने औषधियों का स्वामी बनाया. चंद्रमा ने अपने राज्य की महिमा बढ़ाने के लिए राज-सूय यज्ञ किया और मदोन्मत होकर देवताओं के गुरु वृहस्पति की सुंदर पत्नी तारा का हरण कर लिया. देव ऋषि वृहस्पति तथा देवताओं के राजा इंद्र ने चंद्रमा को समझाते हुए कहा कि--तारा को लौटा दो. ब्रह्मा जी आदि देवताओं ने भी उनको बहुत समझाया. परन्तु चंद्रमा ने तारा को नहीं लौटाया. इस पर देवराज इंद्र सेना लेकर चंद्रमा से लड़ने को आमादा हुए. दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य जी थे. वे देवगुरु वृहस्पति से द्वेष मानते थे. जिस कारण उस समय वे सेना सहित चंद्रमा की सहायता के लिए आगे आए. शुर्काचार्य की सेना में जम्भ, कुम्भ आदि जसे दैत्य थे. इस तरह तारा के लिए देवताओं और असुरों के बीच घोर संग्राम छिड़ गया. देवासुर संग्राम से क्षुब्ध होकर संसार के समस्त प्राणी ब्रह्मा जी के शरण में गए. तब भगवान् ब्रह्माजी ने बीच-बचाव करते हुए शुक्र, रूद्र, देव, दानव में समझौता करा कर तारा को पुनः देव ऋषि वृहस्पति को दिलवाया.

उस समय तारा गर्भवती थी. उस अवस्था में देख कर वृहस्पति जी बोले मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है इसे दूर कर. वृहस्पति के येसा कहने पर तारा ने गर्भ को झाड़ियों में त्याग दिया. जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में त्यागा वह अत्यंत सुंदर तेजधारी बालक था. जिसके समक्ष समस्त देवताओं का तेज भी फीका था. उस सुंदर एवं तेजधारी बालक को देख कर चंदमा और वृहस्पति दोनों ने अपना पुत्र बनाना चाहा. उनकी इस उत्सुकता को देख कर देवताओं को संदेह हुआ और वे तारा से पूछने लगे कि सत्य बताओ देवी यह किसका पुत्र है? परन्तु लज्जावश तारा कुछ नहीं बोल सकी. देवताओं के बार-बार पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया. इस पर वह बालक कुपित होकर कहने लगा- शीघ्र सच्चाई बता दो नहीं तो मैं तुझे अति भयंकर श्राप दे दूंगा. तब ब्रह्मा जी ने उस बालक को शाप देने से मन किया और स्वयं तारा से पूछने लगे. तारा बोली कि यह बालक चन्द्र्मा का है.
यह सुनकर चंद्रमा अत्यंत प्रसन्न हुए और उस बालक को गले लगते हुए बोले- अति उत्तम- बहुत ठीक, बेटा तुम बहुत बुद्धिमान हो इस लिए मैं तुम्हारा नाम "बुध" रखता हूँ. इस प्रकार चंद्रमा ने अपने पुत्र का नाम बुध रख दिया.




(बुध चन्द्र वंशी थे. बुध के पुत्र पुरुरवा थे. पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए. यदु से यादव वंश चला. यदु की कई पीढ़ियों के बाद यादव कुल में माता देवकी की कोख से भगवान् श्रीकृष्ण ने मानव रूप में अवतार लिया.)

सोमवार, 10 जनवरी 2011

यादव: Jai Shri Radhe Jai Shri Krishna


यादव: यादव: Jai Shri Radhe Jai Shri Krishna

श्री राधा कौन है? श्री राधा का भग्वान श्रीकृष्ण के साथ क्या संबन्ध है? इन प्रश्नो के बारे मे श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार अपने ग्रन्थ राधा माधव चिन्तन मे लिखते है- " ये तथा ऐसे ही अनेक प्रश्नो का उत्तर देने की न मुझमे योग्यता है, न हि शक्ति है, न बुद्धि है, न अधिकार है और न हि आवश्यकता ही है। श्री राधा जी के अनन्त रूप है, उनमे अनन्त गुण है, उनके स्वरूपभूत भाव-समुद्र मे अनन्त तिरन्गे उठती रहती है और उनको विभिन्न दृष्टियो से विभिन्न लोगो ने देखा है, अतएव उनके संबन्धो मे इतना ही कहा जा सक्ता है कि जो उन्हे जिस भाव से जानना चाहते है, वे उसी रूप मे जान सकते है।"

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।i
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभागवद्महापुराण)


अर्थ:

यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.