फ़ॉलोअर

रविवार, 23 दिसंबर 2012

स्वागत समारोह

YADAV SAMAJ CHANDIGARH
                             
                                                                           
.                                                                                                   Date 23.12.2012

पंजाब सरकर द्वारा श्री राम नारायण यादव को विधानसभा अध्यक्ष का सलाहकार नियुक्त किये जाने की ख़ुशी में यादव समाज चंडीगढ़ के सदस्यों ने आज सेक्टर 18  स्थित पंचायत  भवन में एक स्वागत समारोह का  आयोजन किया। सदस्यों ने यादव जी  को हार पहना कर और गुलदस्तों के साथ बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। इस मौके पर सभी वक्ताओं ने यादव जी की उपलब्धियों का गुणगान  किया।

 उल्लेखनीय है कि श्री राम नारायण यादव  परिश्रमी, कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार  व्यक्ति हैं। वह समाज सेवा में भी अग्रणी है। हरियाणा विधान सभा सचिवालय से सेवा निवृत होने के बाद उनकी दक्षता,  कार्य कुशलता, कार्य-क्षमता  को ध्यान में रखकर  पंजाब सरकार ने उनको  विधानसभा अध्यक्ष का  सलाहकार  नियुक्त किया है।  इससे  यादव  समाज  के लोगों  को बहुत प्रसन्नता हुई है। यादव समाज  इस कार्य के लिए पंजाब सरकार , विशेषकर डा. चरणजीत सिंह अटवाल अध्यक्ष पंजाब विधान सभा के  आभारी है। 

इस समारोह में अन्य के अतिरिक्त  चंडीगढ़, पंचकुला और मोहाली मोहाली से राम अचल यादव, राम अवतार यादव, केदार नाथ यादव, मुन्नीलाल यादव, छोटे लाल यादव, श्याम लाल यादव ,वरिष्ठ अधिवक्ता  एस के लाम्बा, राव दिलीप सिंह, महिंदर सिंह यादव, वी पी लाम्बा, हरी नारायण यादव, बाबू  राम यादव, दया राम यादव, श्रीप्रकाश यादव, रघुविंदर यादव, राम वृक्ष यादव, चेयरमैन यादव महा संघ राम मूरत यादव, सर्वेश सिंह यादव, भूपेश यादव, फूल चन्द यादव, शिवमूर्ति यादव  शामिल थे।

                                                                                                      (राम अवतार यादव)
                                                                                                          अध्यक्ष 
                                                                                                    स्वागत समारोह

सोमवार, 24 सितंबर 2012

यादवों का कलिंग साम्राज्य



वर्तमान उडीसा राज्य का अधिकांश भाग प्राचीन काल में कलिंग नाम से प्रसिद्द था।   इतिहास प्रसिद्द उस कलिंग पर कभी यादवों का साम्राज्य था।  पहली सदी ई.पू.  तक कलिंग का यदुवंशी राजा खारवेल इस महाद्वीप का सर्वश्रेष्ट सम्राट बन  चुका  था।  मौर्य शासकों का 'मगध'   कलिंग साम्राज्य का एक  प्रान्त  था।  इसका विवरण 'खारवेल का हाथीगुम्फा'  नामक  अभिलेख में मिलता है।     उस  अभिलेख में खारवेल का नाम विभिन्न उपाधियों, जैसे - आर्य महाराज, महामेघवाहन, कलिंगाधिपति श्री खारवेल,  राजा श्री खारवेल, लेमराज, बृद्धराज, धर्मराज तथा महाविजय राज आदि  विशेषणों के साथ उल्लिखित है। 

कलिंग राज्य एवं राजवंश की उत्पत्ति  के बारे में भली-भांति  जानने के लिए यादव
 वंशावली के बारे में जानकारी आवश्यक है. इसलिए   निम्न  अनुच्छेद  में 
संक्षिप्त यादव वंशावली दी गई है:-

"परमपिता नारायण ने सृष्टि उत्पति के उद्देश्य से ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया. ब्रह्मा से अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ. , महर्षि  अत्रि के  चंद्रमा नामक पुत्र हुआ.  चन्द्रमा के वंशज चन्द्र -वशी क्षत्रिय अथवा  सोम-वंशी क्षत्रिय कहलाये.    'चंद्रमा के  बुध नामक पुत्र हुआ. बुध का विवाह इला से हुआ इसलिए चन्द्रमा के वंशजों को (इला) 'ऐल' वंश भी कहा जाता है. बुध के  पुरुरवा नामक पुत्र हुआ. पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति उत्पन्न हुए.  ययाति के यदु, तुर्वसु,दुह्यु,  अनु  और पुरु नामक पांच पुत्र  हुए.अनु की वंश परम्परा में आगे चलकर कलिंग नामक राजकुमार हुए. उसके नाम से कलिंग राज्य की स्थापना हुई और  कलिंग का राजवंश चला.ययाति के ज्येष्ठ पुत्र  यदु से यादव वंश चला. यदु के पांच  पुत्र हुए. जिनके नाम क्रमशः .सहस्त्रजित, पयोद, . क्रोष्टा,. नील और  अंजिक हैं, (कई ग्रंथों में यदु के पुत्रों की संख्या चार बलाई गई है) .यदु के  सबसे बड़े पुत्र  सहस्त्रजित के पुत्र का नाम  शतजित था .शतजित के तीन पुत्र हुए- .महाहय , वेणुहय  और हैहय.  हैहय से हैहय-वंशी यादव क्षत्रिय शाखा प्रचलित हुई. इसी वंश परंपरा में  महाराज चेटक हुए. उनके पुत्र का नाम शोभनराय था. शोभनराय अपने श्वसुर के पास रहता था और उनकी मृत्यु के बाद वह कलिंगपति  बना. उस शोभनराय के कुल में आगे चलकर महामेघवाहन खारवेल हुए."

खारवेल का जन्म ई: पू. 235 में  हुआ.  15 वर्ष की आयु में युवराज पद ग्रहण किया तथा  राज्याभिषेक ई.पू. 211 में हुआ.  खारवेल ने अपने राज्याभिषेक  के दो वर्ष बाद कश्यप क्षत्रियों के सहयोग से 'युषिक' राजाओं को परास्त कर उनकी राजधानी को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया. शासनकाल के पांचवें वर्ष में उसने नन्दों को पराजित किया और उनके द्वारा खुदवाई तनसूली नामक नहर को अपने अधिकार में ले लिया. शासनकाल के सातवें वर्ष में खारवेल ने ललक हथिसिंह नामक एक राजा की कन्या से विवाह किया और साथ ही मुसलीपट्टम पर विजय प्राप्त किया, शासन के आठवें वर्ष में मगध पर आक्रमण करके बारबर पहाड़ी पर स्थित गोरठरी किले को नष्ट कर दिया तथा  राजगृह को अपने अधिकार में ले लिया. शासन के 12वें वर्ष में उसने पांड्य राजाओं को परस्त कर उनसे हाथी, घोड़े, हीरे जवाहरात आदि उपहार स्वरुप प्राप्त किया. 

खारवेल जैन धर्म का अनुयायी होने के साथ साथ अन्य धर्मों का भी आदर करता था. उसने कुमारी पर्वत पर अहर्तों के लिए देवालय निर्मित करवाया. उदयगिरि में 19 तथा खंडगिरि   में 16 विहारों का निर्माण कटवाया. अपने शासनकाल  में उसने एक बार ब्राहमणों को सोने का कल्पवृक्ष भेंट किया था. उस वृक्ष के पत्ते भी सोने के बने थे. 

खारवेल का निधन ई. पू. 198 में हुआ. साहसी, न्याय-प्रिय, दान-प्रिय एवं धर्मशील होने कारण उसने  सुख, शांति, समृधि का सम्राट, भिक्षु सम्राट, धर्मराज आदि रूप में ख्याति प्राप्त किया. 



रविवार, 27 मई 2012

नंदमहर धाम

 

 उत्तर प्रदेश के  अमेठी जिले के मुख्यालय गौरीगंज से मुसाफिरखाना मार्ग पर 16 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह स्थान पौराणिक महत्त्व समेटे हुए है।  यह  यादवों का एक प्रमुख धार्मिक स्थल  है। इस स्थान का प्रादुर्भाव कब हुआ इस विषय में कई मत प्रचलित हैं। एक किंवदंती के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण अपने भाई बलराम के साथ पौंड्रक नामक घमंडी राजा  को मारने के लिए द्वारिका से काशी गए हुए थे। तब वसुदेव और नंदबाबा उनको खोजते हुए यहाँ  आये थे। उस समय यहाँ घना जंगल था। पौंड्रक  को मारकर श्रीकृष्ण बलराम के साथ  द्वारिका वापस  जा रहे थे,  उस  समय नन्दबाबा  और वसुदेव से उनकी मुलाकात  इसी स्थान पर हुई। सभी लोगों ने यहाँ तीन दिन तक विश्राम किया।  उसी दौरान यहां एक यज्ञ का आयोजन भी  किया गया।  नंदबाबा ने भगवान की मूर्ति स्थापित करके उनकी पूजा की थी। श्रीकृष्ण, बलराम, वसुदेव और नंदबाबा के चरणरज से यह स्थान  पवित्र हो गया। यदुवंशियों के पूर्वज होने के कारण  यह स्थान उनकी आस्था, श्रद्धा और विश्वास का प्रमुख केंद्र बन गया। तभी से लोग यहाँ अनवरत यज्ञ, हवन और  पूजा करते आ रहे हैं। प्रभु की याद में धाम के पड़ोस में बसे तीन गांवों का नाम इस प्रकार है-हरि (श्रीकृष्ण) के नाम पर हरिकनपुर, वसुदेव के नाम पर बसयातपुर और नन्द के नाम पर नदियाँवा।

नन्दबाबा ने जिस स्थान पर पूजा की थी, वहां पहले  मिट्टी का चौरा (चबूतरा) था। किन्तु बाद में, सन 1956 ई. में ,  उस चौरे के स्थान पर मंदिर का निर्माण करावाया  गया। उस मंदिर  के भीतर  मूर्तिकक्ष में प्रत्येक मंगलवार को  गाय और भैंस  का  दूध चढ़ाये जाने की परंपरा है। ऐसी मान्यता है कि  गाय भैंस के बियाने के बाद आगामी  पांच मंगलवार  यहाँ दूध  चढाने  से वह गाय भैंस स्वस्थ रहने के साथ  बहुत  दिनों  तक अधिक  दूध देती है। जाति-पाति का भेदभाव किये बिना  सभी धर्मों और समुदाय के लोग बड़ी संख्या में मंगलवार को यहाँ  दूध चढाने आते है।
.
यह स्थान 'राजाबली' और 'पंवरियां' की पूजा के लिए  बहुत प्रसिद्द है. उल्लेखनीय है कि इस  क्षेत्र के अधिकांश यदुवंशी  'राजाबली' और 'पंवरियां' नामक देवता की पूजा करते हैं। उन पुजारियों को ओझा कहा जाता है। पारम्परिक समाज में मान्यता  है कि ओझा में प्रत्यक्ष दुनिया से बाहर किसी रूहानी दुनिया, आत्माओं, देवी-देवताओं या ऐसे अन्य ग़ैर-सांसारिक तत्वों से सम्पर्क रखने या उनकी शक्तियों से लाभ उठाने की क्षमता होती है। ओझाओं के बारे में यह धारणा भी है कि वे अच्छी और बुरी आत्माओं तक पहुँचकर उनपर प्रभाव डाल सकते हैं और  ऐसा करते हुए अक्सर वे किसी विशेष चेतना की अवस्था में होते हैं। ऐसी अवस्था को  किसी देवी-देवता या आत्मा का 'चढ़ना' या 'हावी हो जाना' कहतें हैं। यह प्रथा कमोबेश आधुनिक समाज में भी मान्य है, किन्तु अधिकांश लोग इसे अन्ध-विश्वास मानते हैं। नंदमहर धाम में आने वाले ओझा लोग  राजबली और पवंरिया के पुजारी होते हैं और विशेष चेतना अवस्था में इनके ऊपर इन्ही देवताओं की सवारी होती है।कई पुजारी  प्रत्येक मंगलवार को नियमित रूप से नन्दमहर धाम आते है और अपने ईष्टदेव अर्थात राजबली महाराज और पवंरिया  के नाम की हवन करते हैं।  पचरा जो कि रिझाने वाला गीत है उसको गाकर महाराज को प्रसन्न करते है और उनकी अलौकिक शक्तियों के द्वारा  कथित उपरी हवा, भूत,-प्रेतों  आदि बुरी आत्माओं से  पीड़ित लोगों का इलाज करते हैं।
.
राजाबली और पवंरिया कौन हैं? इसके बारे में मंदिर के महंत भारतनन्द का कहना है कि रोहिणी नंदन  बलराम को राजाबली  और उनके अंगरक्षक को पंवरिया कहा जाता है.नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया द्वारा प्रकाशित  हिन्दी समातर  कोश में  भी 'बली' का अर्थ 'बलराम (दाऊ)' और   पवंरिया का  अर्थ 'पहरेदार'  बताया गया  है। इससे स्पस्ट होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण के भ्राता श्री बलरामजी को राजबली  और उनके सेवक को पवंरिया  कहा जाता है। शक्ति और पराक्रम के  प्रेरणा-श्रोत होने के कारण  लोग बड़ी श्रद्धा और विश्वास से उनकी पूजा करते हैं।
.

प्रति वर्ष कार्तिक मास की  पूर्णिमासी  को यहाँ   बहुत बड़ा  मेला लगता हैं. इसे  नन्दमहर बाबा का मेला कहा जाता है. इसे यादवों का महाकुम्भ भी कहा जाता है। उस दिन वहां  श्रद्धालुयों का जनसैलाब देखते ही बनता है। सुल्तानपुर, फैजाबाद,बाराबंकी, आजमगढ़,  बहराइच, गोंडा, आंबेडकर नगर, प्रतापगढ़, रायबरेली आदि  अनेक जिलों के श्रद्धालु  बड़ी  संख्या में  यहां हरि  दर्शन हेतु आते है। एक अनुमान के  अनुसार दो दिन तक चलने वाले इस यादव-महाकुम्भ  में लगभग एक लाख श्रद्धालु शिरकत करते है।  व्रत धारण किये हुए ओझा लोग यहाँ  हर्ष-उल्लाष के साथ, ढोल नगाड़ों की थाप पर, राजाबली  और पंवरिया की   पूजा  करते है। दीपावली की भाँति मिट्टी के  बने दीयों में जगमगाते  दीप के द्वारा  हवनकुण्ड को सजाया जाता है। तदोपरांत  विधि-पूर्वक  हवन की जाती  है।  सभी पुजारियों का  हवन-कुण्ड अलग-अलग होता है। सामूहिक रूप से हवन करने  की प्रथा नहीं है। मंदिर के  प्रांगण में भक्तों द्वारा राजाबली महाराजऔर पवंरिया के नाम का  'निशान'  चढ़ाये जाने की परंपरा भी  है। यह दृश्य उस दिन का  मुख्य आकर्षण होता  है।  रंग-विरंगे कपड़ों से बने  अनेक  झंडियों वाले  ध्वज या  पताके  को 'निशान' कहा जाता है। निशान चढाने के लिए भक्तगण  मीलों पैदल चल कर, हथेली पर प्रज्वलित दीप थामे, राजबली महाराज के नाम का मन्त्र गुन -गुनाते नंदमहर धाम तक पहुंचते है।  कन्धों  पर  ध्वज उठाये हुए अन्य व्यक्ति उनके पीछे-पीछे चलकर आते हैं।  काबिलेगौर है कि इस दौरान रास्ते  में ना तो ज्योति  बुझने दी जाती  है और नहि ध्वज को पृथ्वी पर रखने दिया  जाता हैं।   ऐसे सैकड़ों  ध्वज  प्रति-वर्ष  यहाँ चढ़ाये जाते हैं। रंग-विरंगे लहराते झंडों से सजा  नन्दमहर धाम उस दिन बहुत  शोभायमान होता  है।
                                                                                                      

                           

        
                      जयश्रीकृष्ण 


गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

यदुकुल के दसवें मुख्यमंत्री -अखिलेश यादव


यदुकुल के दसवें मुख्यमंत्री -अखिलेश यादव 
      
          यादव इतिहास बड़ा गौरवशाली है. इस कुल में समय-समय पर, जीवन के हर क्षेत्र में,  ऐसी अनेक विभूतियों ने जन्म लिया जिन्होंने अपने सामर्थ्य,  योग्यता एवं कुशलता  के बल से न केवल विश्व के इतिहास पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ी, बल्कि यदुकुल का भी नाम रोशन किया. राजनैतिक  क्षेत्र में भी ऐसे ही  अनेक  यदुवंशियों  ने समाज व देश  की सेवा करते  हुए उच्च पदों पर आसीन हुए. विभिन्न गौरवशाली पदों पर काम कर चुके  ऐसे अनेकों  महानुभाव  हैं  उन सबका  नाम लिखना यहाँ असंगत होगा.

 स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद  विभिन्न प्रदेशों में अब तक तीन  यदुवंशियों  को  राज्यपाल , दस को  मुख्यमंत्री  और एक को  लोकसभा स्पीकर  के रूप में पदासीन  होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है.  उनका विवरण नीचे दिया गया है:-

 मुख्यमंत्री-दिल्ली में :
1 . चौधरी ब्रह्मप्रकाश, दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री (1952 से 1955 तक) 

मुख्यमंत्री-उत्तर प्रदेश में :
1 .राम नरेश यादव -----------(23 .6 .1977   से 27 .2 . 1979   तक ) 
2 .  मुलायम सिंह यादव -----(2 .12 .1989 से 24 .6 .1991 तक )
      मुलायम सिंह यादव----(4 .12 .1993 से 2 .6 .1995 तक   ) 
      मुलायम सिंह यादव-----(29 .8 .2003 से 12 .5 .2007 तक )
3    अखिलेश यादव...........(15.3.2012 

मुख्यमंत्री-बिहार में :
1 . वी.पी. मंडल ----------------1968
2 . दरोगाप्रसाद राय ----------(16 .2 .1970 से 22 .12 .1970 तक )
3 . लालू प्रसाद यादव--------(11 .3 .1990 से 24 .7 .1997 तक )
4. राबडी देवी -----------------(24 .7 . 1997 से 3 .3 .2000 तक ) 
    राबडी देवी----------------(11 .3 .2000  से 7 .3 .2005 तक  )

मुख्यमंत्री-मध्य प्रदेश में :
1 . बाबूलाल गौर --------2007

मुख्यमंत्री-हरियाणा में :
1 . राव वीरेन्द्र  सिंह 1967  


राज्यपाल -राजस्थान में
1.बलिराम भगत
 
राज्यपाल-गुजरात में
1.महीपाल शास्त्री 
 
राज्यपाल-मध्य प्रदेश में
1. राम नरेश यादव  

 लोकसभा स्पीकर:
1. बलिराम भगत 

 वर्तमान समय में मुलायम  सिंह यादव और उनके सुपुत्र अखिलेश यादव  ऐसे दो  महान व्यक्ति  हैं जिनका जिक्र आते ही यदुवंशियों का सीना  गर्व से फूल जता है. मुलायम सिंह यादव एक जाने माने सफल समाजवादी नेता है. उन्हें लोग प्यार से "नेताजी'"  कहते हैं. वे तीन बार उत्तर-प्रदेश के  मुख्यमंत्री तथा एक बार केंद्र में रक्षामंत्री रह चुके हैं. अपने पिताश्री के  पद-चिन्हों पर चलते हुए  अखिलेश यादव ने हाल ही  में हुए  उत्तर प्रदेश की विधान-सभा चुनाव में, युवा वर्ग के सहयोग से , अभूतपूर्व कारनामा कर दिखाया. विधान -सभा की 403  में 224 सीटें जीत कर उन्होंने सबको आश्चर्यचकित कर दिया.  15 मार्च, 2012  वे यदुकुल के दसवें मुख्यमंत्री बने. वे उत्तर प्रदेश के सबसे कम आयु वाले मुख्यमंत्री है. 

अखिलेश यादव बेदाग छबि, मृदुभाषी तथा प्रगतिशील विचारों वाले युवा नेता है. उनका जन्म 1 जुलाई, 1973 को उत्तर प्रदेश में  इटावा जिले के सैफई गाँव  में हुआ.  इनके पिता  का नाम मुलायम सिंह यादव  और माता का नाम मालती देवी है. इनका विवाह  1999  में डिम्पल यादव से हुआ. इनके  अदिति,   टीना और अर्जुन नाम वाले  तीन बच्चे  हैं.  इनके पिता एक जाने-माने  समाजवादी नेता हैं. भारतीय राजनीति  में उनका विशिष्ट स्थान है.   अखिलेश यादव की  प्रारंभिक शिक्षा  इटावा में तथा उच्च स्कूली शिक्षा मिलिटरी स्कूल धौलपुर राजस्थान से हुई.   इंजीनियरी में  स्नातक स्तर की पढाई मैसूर यूनिवर्सिटी  से  और आर्ट्स में  मास्टर डिग्री सिडनी यूनिवर्सिटी से उत्तीर्ण  किया.

अखिलेश यादव ने  वर्ष 2000 में   कन्नौज संसदीय क्षेत्र से मध्यावधि चुनाव जीत कर पहली बार लोकसभा में प्रवेश किया. तब से अब तक वे तीन बार लोक सभा के सदस्य चुने जा चुके हैं. वर्ष 2009 में अखिलेश जी ने कन्नौज और फिरोजाबाद दो संसदीय क्षेत्रो से जीत हासिल किया  परन्तु बाद मेंफिरोजाबाद  सीट से त्यागपत्र दे दिया और  कन्नौज लोकसभा सीट को कायम रखा.

अखिलेश जी  उत्साहित ,तेजस्वी और सही सोच-वाले युवा नेता हैं. उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन को दूर करके  विकास के उच्च शिखर पर ले जाने की उनकी  तीव्र  इच्छा भी  हैं. धार्मिक एवं जातिगत भावनाओं  से दूर रहकर वे सभी युवक-युवातियों को उन्नति के शिखर पर ले जाना चाहते है. उन्हें भली-भाँति मालुम है  कि  यह शुभ कार्य समाज के हर वर्ग को समान दृष्टि से देखते हुए तथा  न्याय के मार्ग पर  चलकर ही संभव है. मुख्यमंत्री   प्रदेश के  सभी नागरिकों का नेता होता है न कि किसी वर्ग विशेष का.  अतः उनके इस महान कार्य  को  सफल  बनने के लिए समाज के हर वर्ग से सहयोग की आवश्यकता है.

    

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

Akrur अक्रूर


यदुकुल की अनेक शाखाए और उप-शाखाये हैं. उनमें  'वृष्णि-वंश' नाम की एक सुप्रसिद्ध और परम पवित्र शाखा भी है जिसे भगवान श्रीकृष्ण का पितृ-कुल माना जाता है. अक्रूर जी का जन्म इसी वंश में हुआ था. वे रिश्ते में श्रीकृष्ण के चाचा लगते थे. 

अक्रूर के  पिता का नाम श्वफल्लक तथा माता का नाम गांदिनी था।  श्वफल्लक जहाँ भी रहते थे वहां ब्याधि, अनावृष्टि आदि का भय नहीं रहता था।  एक बार  काशी के शक्तिशाली राजा  के राज्य में तीन वर्ष तक पानी नहीं बरसा तब उन्होंने श्वफल्लक को बुलाकर अपने यहाँ ठहराया। उनके वहां पधारते ही जल बरसना शुरू हो गया। तदन्तर उसी काशिराज की गांदिनी नामक  पुत्री से उनका विवाह हो गया।  उस दम्पति से तेरह पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुई. उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर जी थे. अक्रूर के अतिरिक्त श्वफल्लक के अन्य पुत्रों का नाम - आसंग, सारमेय, मृदुर, म्रिदुविद, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गंधमादन और प्रतिवाहु था तथा पुत्री का नाम सुचीरा था. 

 अक्रूर के देवयान और उपदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।  अक्रूरजी के बारे में कहा जाता है कि वे दान देने वाले, यज्ञ करने वाले, शास्त्रों के ज्ञाता, अतिथियों से प्रेम करने वाले, धैर्यवान, ज्ञानी और धर्मात्मा थे। अपने पिता की भांति वे भी जहाँ जाते थे वहाँ का वातावरण मंगलमय हो जाता था।  चारों तरफ खुशियाँ बिखर जाती थीं .

कंस मथुरा का राजा  था।  वह अत्यंत क्रूर, दुराचारी  और राक्षस प्रवृति का शासक था।   वह श्रीकृष्ण का मामा लगता था.  श्रीकृष्ण की माता,  देवकी उसकी चचेरी बहन थी।  देवकी  उसको बहुत   प्रिय थी।  अपनी इस प्रिय बहन का विवाह बहुत धूम धाम से उसने वसुदेव  जी  के साथ किया। विवाहोपरांत  जब  देवकी और वसुदेव को रथ मे बैठाकर  उनके घर छोडने जा रहा था,  तो रास्ते  मे  आकाशवाणी सुनाई दी , "हे कंस !  जिसे तू इतने धूम-धाम से रथ में बैठाकर उसके घर छोडने जा रहा  है,  उसी  के आठवें पुत्र के हाथों तेरी मृत्यु निश्चित है। "  

 आकाश मार्ग से आयी देववाणी के ये शब्द सुनकर कंस भयभीत हो गया।  वह  देवकी का वध करने पर  उतारू हो गया।    देवकी के बाल पकड कर रथ से नीचे खींच लिया।   म्यान से तलवार   खींच कर  यमदूत की  भाँति उसके सामने खडा हो गया।  देवकी की मृत्युं  निश्चित है- ऐसा विचार कर वसुदेवजी उसके पर्णों की रक्षा का हर सम्भव प्रयास करते रहे। उनके बहुत समझाने-बुझाने और अनुनय -विनय करने  पर भी पापी कंस नही माना।  तब  वसुदेवजी  ने कंस को आश्वासन देते हुये कहा - " महाराज कंस ! देवकी से तो आपको कोई  भय है ही नहीं।  आकाशवाणी के अनुसार  आपकी मृत्यु इसके आठवें पुत्र से होगी। हे राजन!  मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि इसके गर्भ से  उत्पन्न सभी संतान,  पैदा होने के तुरंत बाद,  मै   आपके हवाले कर दिया करूंगा।" वसुदेव के इस  वचन को सुनकर उसने देवकी को छोड दिया,  किंतु उसके   मन से शंका नहीं गई। अपने प्राणों की रक्षा के ख्याल से उसने वसुदेव और देवकी  को बंदी बना लिया। 

 देवकी के जो भी पुत्र पैदा होता  अपने वचन के अनुसार वसुदेव उसे क्रूर कन्स को सौंप देते।  वह बड़ी निर्दयता से उसे मार दिया करता था।  इस प्रकार कन्स ने देवकी के छः पुत्रों को मार डाला।  सातवी बार देवकी के गर्भ मे  भगवान के अन्शावतार शेष जी का आगमन हुआ  । जिन्हे भगवान की आज्ञा के अनुसार योगमाया ने  वसुदेव की रोहिणी नामक  एक अन्य स्त्री  के गर्भ मे स्थापित कर दिया,  जो उस समय गोकुल मे नन्द के घर मे आश्रय  लिए हुए थी।    इस प्रकार देवकी का सातवाँ पुत्र रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। उस  बालक का नाम बलराम था। आठवीं बार परमपिता भगवान श्रीहरि स्वयं देवकी गर्भ मे विराजमान हुए और रोहिणी नक्षत्र  भाद्र पद कृष्ण-पक्ष की अष्टमी अर्धरात्रि में कंस के बंदीगृह में  चन्द्रमा के समान, सोलह कलाओं  से पूर्ण वे  भूलोक में अवतरित हुए।  उसी समय गोकुल मे नन्द के घर योगमाया ने कन्या के रुप मे यशोदा के गर्भ से  जन्म  लिया। भगवान की आज्ञा के अनुसार वसुदेव जी अर्ध रात्रि मे ही बालक को गोकुल लेजाकर अनभिज्ञ  सोई पड़ी यशोदा की गोद में लिटा दिया और कन्या के रूप में उत्पन्न योगमाया को अपने घर लाकर यशोदा को दे दिया। बंदीगृह से नवजात शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर जब  पहरेदारों ने कंस को सूचित किया।  वह शीघ्र ही बंदीगृह आ धमका।   कन्या को देवकी  से   छीन लिया और बाहर लाकर एक शिला पर पटक दिया। कन्या कंस के हाथ छूटकर यह कहती हुई आकाश में उड़ गयी -"कि हे  पापी कंस ! तू मुझे क्यों मार रहा है , तुझे मारने वाला तो  जन्म ले चुका है, वह जीवित है। "

मुझे मारने वाला  जीवित है- यह सोचकर कन्स    भयभीत रहने लगा।   एक दिन  देवर्षि नारद ने कंस  के महल मे पाधारे और उसको बताया कि देवकी गर्भ से उत्त्पन्न उसका आठवां पुत्र अभी जीवित है।  उसका नाम कृष्ण है।   वसुदेव ने पैदा होते ही उस बालक को   नन्द के यहाँ पहुंचा दिया था।   वहां से यशोदा की नवजात कन्या को ले आया था।  उस कन्या को देवकी की आठवीं संतान बताकर वध करने के लिए आपको   दिया था।  वध करते समय वह तुम्हारे हाथ से छूटकर यह कहती हुई आकाश में उड़ गई थी कि -"हे पापी कंस! तू मुझे क्यों मारता है तेरा काल तो संसार में अन्यत्र जन्म ले चुका है". यह सब जानकर उसकी आशंका विश्वास में बदल गई और उसके क्रोध का ठिकाना न रहा।  .उसने तत्काल वसुदेव को राजसभा में बुलावाया। क्रोधित कंस वसुदेवजी  की हत्या कर देना चाहता था,,  किन्तु देवर्षि नारद के कहने पर उसने  ऐसा नहीं किया, लेकिन राजसभा में यदुवंशियों के समक्ष उनको बहुत प्रताड़ित और अपमानित किया। 

कृष्ण को मारने की उसकी सभी योजनाएँ विफल हो चुकी थीं।  तब उसने एक नई योजना तैयार की। योजना  'धनुष-यज्ञ; नामक एक उत्सव आयोजित करने की थी ।   कृष्ण और बलराम को उत्सव देखने के बहाने मथुरा बुलाकर मतवाले हाथी के सामने डालकरउनको  मरवा देना चाहता था।   हाथी से बच निकालने पर अखाड़े में चाणूर, मुष्टिक,कूट, शल, तोशाम आदि जैसे खतरनाक पहलवानों के साथ मल्ल करवा कर वध कर देने का निश्चय था।   तब प्रश्न यह था क़ि उनको लिवा लाने के लिए ब्रज कौन जायेगा? 

 अक्रूर जी कंस के यहाँ दान-विभाग के अध्यक्ष थे। वे बहुत ही मिलनसार, प्रभावशाली और कुशल कूटनीतिज्ञ थे।  अन्धक, वृष्णि , भोज आदि सभी यदुवंशियों में सम्मानीय भी थे।   उनके माध्यम से भेजे गए आमंत्रण को कृष्ण, बलराम और नन्द षडयंत्र नहीं समझेंगे और आमंत्रण स्वीकार कर भेंट सामग्री साथ लेकर सहर्ष मथुरा आ जाएंगें।  ऐसा विचार कर उसनेयह कार्य अक्रूरजी को  सौपा। अक्रूरजी भगवान के बड़े भक्त थे। उन्होंने सोचा क़ि यह तो मेरा सौभाग्य है।  इसी बहाने पर-ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हो जायेंगे।  वे रथ में बैठकर भगवान के दर्शन क़ी बात सोचते हुए ब्रज में जा पहुंचे।  उनको वहां आया देख नन्द, यशोदा ,गोप आदि सब आनंदित हो गए।  उनका यथोचित आदर सत्कार किया।   कृष्ण और बलराम ने उनको ह्रदय से लगा लिया। 

अक्रूरजी ने  कंस के सन्देश को  सुनाया औरश्रीकृष्णचंद से एकांत में  बात की।  उनको बताया कि - "कंस यादवों से शत्रुता का भाव रखता है. उसने वसुदेव और देवकी को हथकड़ी से जकडकर कारागार में बंद किया हुआ है. आप दोनों भाइयों को उत्सव में शामिल होने के बहाने मथुरा बुलाकर वध कर देना चाहता है". भगवान श्रीकृष्ण यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने दुष्टों को मारकर पृथ्वी का भार हल्का करने के लिए ही मानव रूप में अवतार लिया था. कंस जैसे पापी और दुराचारी को मारने का इससे अच्छा अवसर फिर नहीं मिलेगा, यह सोचकर भगवान श्रीकृष्णचंद और रोहिणीनंदन बलभद्र अक्रूर के साथ उत्सव में शामिल होने के लिए मथुरा जाने के लिए तैयार हो गए. .नन्दबाबा सहित अनेक गोपगण भी उनके साथ चल पड़े. श्री अक्रूर जी बहुत ज्ञानी और दिव्य शक्ति के रखवाले थे. लेकिन भगवान को मथुरा ले जाते समय उनके मन में शंका उठने लगी क़ि क्या श्रीकृष्ण कंस वध कर पाएंगे ? एसा न हो कि कंस अपनी योजना के अनुसार राम-कृष्ण का वध करने में सफल हो जाय. इसी शंका के वशीभूत होकर उनके मन के विचार चेहरे पर चिंता के रूप में दिखाई देने लगे. अन्तर्यामी भगवान उनके ह्रदय के भाव को समझ गए. अक्रूरजी स्नान करना चाहते थे. अतएव उन्होंने कुछ दूर जाने के बाद यमुना के किनारे रथ को रोक दिया और यमुना में स्नान करने के लिए चले गये. श्रीकृष्ण और श्री बलराम- वहां रथ में ही बैठे रहे. उन्होंने स्नान करते समय जब डुबकी लगाई तो भगवान कृष्ण मुस्कराते हुए जल में बैठे दिखाई दिए. अक्रूरजी सोचने लगे क़ि देवकीनंदन यमुना किनारे रथ में बैठे थे, वे जल के भीतर कैसे आ गये? शायद वे अब रथ में नहीं होंगे. ऐसा सोचकर मस्तक जल से बाहर निकाला तो देखा कि लीलामयी भगवान श्रीकृष्ण भ्राताश्री बलराम के साथ यमुना किनारे यथावत रथ पर बैठे हुए हैं. उन्हें आश्चर्य हुआ कि एक ही समय में वे जल के अन्दर और बाहर दोनों जगह कैसे विद्यमान हो सकते हैं? मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूँ. यह सोचकर पुनः जल में डुबकी लगाई तो प्रभुजी को फिर जल में बैठे हुए देखा. मस्तक को फिर ऊपर किया तो भगवान बाहर रथ पर बैठे दिखे. इस प्रकार बार-बार भगवान को एक साथ दो जगह विद्यमान देख कर उनके मन की शंका दूर हो गई . वह समझ गए क़ि ये दोनों भाई साधारण मानव नहीं हैं, बल्कि मानव रूप में नारायण के अवतार है कंस उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता. स्नानादि अवश्यक कार्य समाप्त करके गांदिनीनंदन ने पुनः रथ हांक दिया.और दिन ढलते ढलते वे मथुरापुरी जा पहुंचे. इस बीच गोप-गणों के साथ नन्दबाबा भी वहां पहुंच चुके थे. उन्होंने मथुरा नगर के बाहर एक बगीचे में डेरा डाल दिया. भगवान श्रीकृष्ण और बलराम उसी पड़ाव में नंदबाबा के पास रुक गए और अक्रूर को रथ लेकर अपने घर जाने को कह दिया.

श्रीकृष्ण और बलराम ने मथुरा पहुंचकर नगर में कंस द्वारा उनको मारने के लिए तैनात मतवाले हाथी को तथा चाणूर, मुष्टिक,आदि पहलवानों को मार गिराया. फिर पापी कंस और उसके आठ भाइयों का वध किया. तदोपरांत अपने माता-पिता को बंधन से छुड़ा कर उनके चरणों में मस्तक रखकर उनकी वन्दना की. उसके बाद दोनों भाई अपने नाना उग्रसेन के पास गये और उनको कारागार से मुक्त करके यदुवंशियों का राजा बनाया. यज्ञोपवीत हो जाने के बाद उन्होंने गुरु संदीपन के पास जाकर विद्या अध्यन किया और गुरु दक्षिणा स्वरुप उनके मृतक पुत्र को जीवित किया . भगवान श्रीकृष्ण कुछ दिन बाद उद्धवजी और बलरामजी को साथ लेकर, कुछ अपने हितार्थ तथा कुछ अक्रूर जी को प्रसन्न करने के उद्देश्य से उनके घर गए. अक्रूरजी उनको वहां आया देखकर बहुत आनंदित हुए तथा भगवान कृष्ण, बलराम और उद्धवजी का बहुत सत्कार किया. कुशल क्षेम आदि पूछ लेने के बाद श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी से कहा -" हस्तिनापुर में महाराज पाण्डु की मृत्यु हो जाने केबाद धृष्टराष्ट्र वहां की गद्दी पर आसीन हुए है . वह बुआ कुंती और उनके पुत्र पांडवों के साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहे हैं. इसलिए हे चाचा जी! आप पांडवों के हितार्थ, उनका वृतांत जानने के लिए हस्तिनापुर पधारें."
(क्रमशः)

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

जीजाबाई

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में माँ का स्थान बहुत ऊँचा होता है. जहां एक ओर माँ को ‘प्रथम गुरु’ कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उसके ‘पाँव के नीचे स्वर्ग’ बताया गया है। इन कथनों में कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि प्रमाण के रूप में भारत के इतिहास में ऐसी एक नहीं बल्कि अनेक माताओं के नाम लिखे जा सकते हैं। यदुकुल में भी ऐसी अनेक माताएं हुई है जिनकी वीरता, साहस और त्याग से प्रेरित होकर उनकी संतानों ने बड़े ही अदभुद, महान और साहसिक कार्य किये और विश्व- इतिहास के पटल पर अपने गौरवगाथा की अमिट छाप छोड़ गए. ऐसा ही एक नाम, हिन्दू-स्वराज्य के निर्माता, शिवाजी की माता जीजाबाई का है. जीजाबाई का जन्म यादव-कुल में, सन् 1597 ई. में, सिंदखेड नामक एक गाँव में हुआ था. यह स्थान आजकल महाराष्ट्र के विदर्भ मंडल के अंतर्गत बुलढाणा जिले में आता है. उनके पिता का नाम लघुजी जाधव तथा माता का नाम महालासाबाई था. उनके पिता एक शक्तिशाली सामंत थे.

जीजाबाई का विवाह मालोजी के पुत्र शाहजी भोंसले से हुआ था. शाहजी भोंसले चतुर तथा नीति-कुशल व्यक्ति थे. पहले वे अहमदनगर के सुलतान की सेवा में थे, किन्तु बाद में, जब अहमदनगर पर शाहजहाँ ने अधिकार कर लिया, तब 1636 ई. में उन्होंने बीजापुर में नौकरी कर ली और अपनी नीति-कुशलता के द्वारा वहां पर यथेष्ट यश उपार्जित किया। उनको कर्नाटक में एक विशाल जागीर भी प्राप्त हुई. प्रारंभ में जीजाबाई के पिता लघुजी और श्वसुर मालोजी के परिवारों में घनिष्ठ मित्रता थी, किन्तु बाद में यह मित्रता कटुता में बदल गई.
जीजाबाई धर्मपरायण, पतिपरायण, त्याग और साहसी स्वभाव वाली स्त्री थीं. एक बार उनके पिता मुगलों की ओर से लड़ते हुए शाहजी का पीछा कर रहे थे. जीजाबाई उस समय गर्भवती थीं. शाहजी उनको शिवनेरी के दुर्ग में, एक मित्र के संरक्षण में, छोड़कर आगे बढ़ गए. शिवनेरी महाराष्ट्र राज्य के जुन्नर गाँव के पास स्थित एक प्राचीन किला है. इसको अहमदनगर के सुलतान ने जीजाबाई के श्वसुर को जागीर में दिया था. जाधवराव शाहजी का पीछा करते हुजब उस दुर्ग में पहुंचे पहुंचे, तो वहाँ शाहजी नहीं मिले किन्तु जीजाबाई मौजूद थीं. वह अपने पिता के समक्ष आई और बड़ी वीरता से कहा-" मेरे पति आपके शत्रु हैं इसलिए मैं भी आपकी दुश्मन हूँ. आपका दामाद तो यहाँ है नहीं, कन्या हाथ लगी है, उसे ही बंदी बना लो और जो उचित समझो सजा दो." लघुजी ने उनको अपने साथ मायके चलने को कहा, किन्तु जीजाबाई अपने पिता की इस बात पर पानी फेरते हुए उत्तर में कहा कि आर्य नारी का धर्म पति के आदेश का पालन करना है. शिवाजी के जन्म इसी शिवनेरी दुर्ग में हुआ था.

जीजाबाई एक तेजस्वी महिला थीं. जीवन भर पग-पग पर कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए उन्होंने धैर्य नहीं खोया. उन्होंने शिवाजी को महान वीर योद्धा और स्वतन्त्र हिन्दू राष्ट्र का छत्रपति बनाने के लिए अपनी सारी शक्ति, योग्यता और बुद्धिमत्ता लगा दी. शिवाजी को बचपन से बहादुरों और शूर-वीरों की कहानिया सुनाया करती थीं. गीता और रामायण आदि की कथाये सुनकर उन्होंने शिवाजी के बाल-ह्रदय पर स्वाधीनता की लौ प्रज्वलित कर दी थी. उनके दिए हुए इन संस्कारों के कारण आगे चलकर वह बालक हिन्दू समाज का संरक्षक एवं गौरव बना. दक्षिण भारत में हिन्दू स्वराज्य की स्थापना की और स्वतन्त्र शासक की तरह अपने नाम का सिक्का चलवाया तथा 'छत्रपति शिवाजी महाराज' के नाम से ख्याति प्राप्त की.

बुधवार, 30 नवंबर 2011

चुशूल के रण-बाँकुरे




भारत भूमि सदा वीर वसुंधरा रही है. यहाँ समय-समय पर एक-से-एक वीर पैदा होते रहे हैं जिन्होंने अपने साहस, बलिदान और वीरता के बल पर राष्ट्र के मस्तक को उंचा किया है. धन्य हैं वे माँ जो ऐसे वीर सपूतों को जन्म देती हैं. ऐसे ही कुछ अहीर वीर-जवानों ने सन् 1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान रेजांग ला क्षेत्र में अपने प्राणों की आहुति देकर जहाँ राष्ट्र के मान-सम्मान और गौरव को बढाया वहीं यदुवंश का भी सिर उंचा किया। उन्होंने अहीर शब्द की सार्थकता सिद्ध कर दी। 'अहीर' अभीर शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ होता है "न डरने वाला' अर्थात निडर। देश की सीमा की रक्षा के लिए वे निडर होकर अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मनों के छक्के छुडा दिए. कर्तव्य पालन का ऐसा उदाहारण विश्व इतिहास में कहीं नहीं मिलता जिसमें जीवन-मरण से बेख़ौफ़ अंतिम गोली और अंतिम सांस तक दुश्मन से लोहा लेते रहे. मातृभूमि की रक्षा का इतना दृढ संकल्प कि युद्ध-विराम हो जाने के तीन महीने बाद जब पहाड़ पर बर्फ पिघली और उनके शवों को ढूंढकर रणभूमि से सम्मान सहित बाहर लाया गया तो उस समय भी उनके हाथ से हथियार छूटे नहीं थे अपितु पहले की भांति ही तने हुए थे. मानो अब भी दुश्मन को ललकार रहे हो.

सन 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान 13-कुमायूं रेजिमेंट को चुशूल क्षेत्र में तैनात किया गया था. चुशूल चीनी सीमा से 15 किलोमीटर दूर हिमालय के पहाडो में 16000 फीट की ऊंचाई पर स्थित एक छोटा सा गाँव है. ऊंचे ग्लेशियरों से घिरा हुआ सुनसान पहाड़ी इलाका है वहां हर मौसम में लैंडिंग के लिए उपयुक्त एक हवाई पट्टी है. चुशूल घाटी के दक्षिण-पूर्व दिशा में कुछ मील की दूरी पर रेजांग ला नामक एक पहाड़ी दर्रा (pass) है, जो सुरक्षा की दृष्टि से यह बहुत अहम है. 13-कुमायूं रेजिमेंट की अहीर चार्ली कंपनी को रेजांग ला में तैनात किया गया था..मेजर शैतान सिंह इस कंपनी का नेतृत्व कर रहे थे. उनके संचालन में सैनिको ने रेजांग ला में महत्वपूर्ण तरीके से पोजीसन ले रखी थी. सिपाहियों ने वहा अच्छे मोर्चे बना लिए थे किन्तु उनके पास दुश्मन को रोकने के लिए न तो कोई खान (mines) बिछाने का प्रबन्ध था और न हि कमांड पोस्ट की सुरक्षा हेतु पर्याप्त साधन.

17 -18 नवम्बर की रात्रि में चीन ने रेजांग ला के आस पास अपने सैनिक तैनात कर दिए थे.उस दिन वहां का तापमान शून्य से 15 डिग्री सेल्सियस नीचे था. असमान्य एवं खून जमा देने वाली कड़ाके की ठण्ड थी. रात्रि 10 बजे तेज बर्फीली तूफान शुरू हुआ जो 2 घंटे तक चलता रहा जिसने आग मे घी का काम किया और सम्पूर्ण घाटी को जानलेवा ठण्ड से जकड दिया . भारतीय सैनिक मैदानी क्षेत्र से लाकर वहां तैनात किये गए थे. वे इस तरह की बर्फीली ठण्ड में रहने के अभ्यस्त नहीं थे। उनके पास पहाड़ी-ठण्ड से बचने के लिए उपयुक्त वर्दी भी नहीं थी. 18 नवम्बर को रविवार का दिन था और दिवली का त्योहार। सारा देश जहा दीपावली का जश्न मना रहा था वही भारतीय सैनिक विषम परिस्थियों में प्राणों की बाजी लगाकर मातृभूमि की रक्षा के लिए खून की होली खेल रहे थे. सुबह 5 बजे पौ फटने से पहले चीनी सैनिको ने रेजांग ला की चौकी पर भीषण हमला कर दिया. भारतीय जवानो ने जबरदस्त जवाबी कार्रवाई करते हुए उस हमले को विफल कर दिया. यह जबरदस्त लड़ाई कई घंटों तक चली. इसमें दुश्मन को बहुत नुक्सान उठाना पड़ा . उसके अनेको सैनिक मारे गये और बहुत से घायल हुए. वहां की नालियाँ दुश्मन की लाशों से भर गईं। इस हमले के विफल हो जाने पर दुश्मन- फ़ौज़ ने एक और जबरदस्त हमला किया। लेकिन इस बार भी उनको मुह की खानी पडी। भारतीय रण-बांकुरों ने उस हमले को भी विफ़ल कर दिया। तब चीनी सैनिको ने चौकी के पीछे की ओर से भारी मशीन गन, मोर्टार, ग्रेनेड आदि के साथ से हमला बोल दिया। वहां उस समय चीनी सैनिकों की लाशें बिछी पड़ी थीं । कई जगह तो हमलावरो को अपने ही सैनिकों की लाश के ऊपर से गुजरना पडा। दुश्मन की फौज ने भारतीय चौकी को चारों ओर से घेर लिया और तोपों से भारी गोले बरसाने शुरू कर दिए। भारतीय सैनिक चीनियों की अपेक्षा जहाँ संख्या में बहुत कम थे वहीं उनके हथियार और गोला बारूद भी अपेक्षाकृत कम उन्नत के थे फ़िर भी वे बड़ी वीरता के साथ डट कर लडे। गोला बारूद समाप्त हो जाने पर भी भारतीय जांबाज हार नहीं माने। वे मोर्चे से बाहर निकल आये और निहत्थे ही चीनी सैनिकों पर टूट पड़े। दुश्मन की फ़ौज़ का जो भी सैनिक मिला उसे पकड़ लिया और चट्टान पर पटक पटक कर मार डाला। इस प्रकार विषम परिस्थितियों मे प्राकृतिक बाधाओं के खिलाफ रेजांग-ला की इस लडाई मे भारतीय वीर- जवान आखिरी गोली, खून की आखिरी बूँद और आखिरी सांस तक लडते रहे। शूर-वीरो ने अपने प्राणो की आहुति दे दी लेकिन चौकी पर दुश्मन का कब्जा नही होने दिया। कंपनी के 123 में से 114 अहीर जवान मारे गये थे .इसमें से अधिकांश हरियाणा के अहिरवाल क्षेत्र के रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ जिले से थे। कुछ -एक दिल्ली और राजस्थान से भी थे। इस लड़ाई में चीन की फ़ौज़् का बहुत नुक्सान हुआ था.। एक अनुमान के अनुसार इसमें लगभग 1100 चीनी सैनिक मारे गए थे।

13 -कुमायूं रेजिमेंट की इस कंपनी के 114 वीरों की याद में चुशूल से 12 किलोमीटर की दूरी पर एक स्मारक बना है जिसमे सभी वीर सैनिकों के नाम अंकित हैं। उस स्मारक पर ये पंक्तियाँ भी अङ्कित है:-

"Than facing fearful odds,
For the ashes of his fathers,
And temples of his gods.
To the sacred memory of the Heroes of Rezang La,
114 Martyrs of 13 Kumaon who fought to the Last Man,
Last Round, Against Hordes of Chinese on 18 November 1962.
Built by All Ranks 13th Battalion, The Kumaon Regiment."

रेजांग ला शौर्य समिति द्वारा रेवाड़ी शहर के धरुहेरा चौक के निकट एक शहीद स्मारक स्थापित किया गया है. समिति प्रति वर्ष इन शहीदों कि याद में 18 नवम्बर को रजांग ला
दिवस मनाती है.

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

गोपी-कृष्ण





 पांच सखियाँ   वन  में बैठी फूलों की माला गूंथ रही थीं   पाँचों ही मुरली मनोहर भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं  वे परस्पर  अपने  प्रिय प्रभू  श्रीकृष्ण की बाते  कर करके आनंदित हो  रही थीं । इतने मे उधर से एक साधु  जी आ निकले  साधु को रोक कर बालाओं ने कहा- " महात्मन ! हमारे प्राण प्रिय श्री कृष्ण वन में कही खो गए है   क्या आपने उन्हें काही  देखा है ?यदि देखा  है तो  हमे  भी बता दीजिये   " इसपर साधु ने कहा-"अरी पागलियो !  कृष्ण कही ऐसे मिलते है? उनको    पाने के लिए घोर  तपत्या  करनी पड़ती   है   वे राजेश्वर है    रुष्ट होते है तो दंड देते है और प्रसन्न होते है तो पुरस्कार  " सखियों ने कहा-" महात्मन ! आपके वे कृष्ण कोई और होंगे, हमारे कृष्ण राजेश्वर नहीं हैं, वे तो हमारे प्राणपति है    वे हमें क्या पुरस्कार  देंगे ? उनके कोष की कुंजी तो हमारे ही  पास रहती है     दंड तो वे कभी देते ही नहीं   यदि हम कभी कुपत्थय कर ले और वे कडवी दवा पिलाये तो  निश्चिति यह  दंड नहीं  प्रेम है.    साधु जी उनकी बात सुनकर मस्त हो गए. सभी गोपियाँ श्री कृष्ण को याद करके नाचने लगी  और   तन्मय हो   साधु भी  नाचने  लगा।  सारा वातावरण कृष्णमय हो गया   
!!जय हो मुरलीवाले की!!

रविवार, 6 नवंबर 2011




~~~~~~~~~~~~~~~~
पौन्ड्रक और काशिराज का उद्धार
~~~~~~~~~~~~~~~~~

काशी के पास करुष नाम का एक छोटा सा राज्य था. वहां के राजा का नाम पौन्ड्रक था.वह बड़ा घमंडी था. काशी-नरेश से उसकी घनिष्ट मित्रता थी. उसके चापलूस सरदार हमेशा उससे कहा करते थे कि आप भगवान वासुदेव (श्रीकृष्ण) हैं और जगत की रक्षा के लिए इस पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं. बार-बार इस प्रकार की झूठी प्रशंसा सुनकर वह मूर्ख सचमुच ही अपने आपको को श्रीकृष्ण समझने लगा. उसने अपने दो हाथों के अतिरिक्त दो नकली हाथ लगा लिया और श्रीकृष्ण के समान ही शंख, चक्र, गदा पद्म, कवच आदि रखने लगा. जब बलराम जी द्वारिका से ब्रज गये हुए थे, उस समय पौन्ड्रक ने कृष्ण के पास दूत भेजकर कहलवाया -" भगवान का अवतार कहे जानेवाला असली कृष्ण मै हूँ, तुम नकली हो. इसलिए तुम स्वयं को वासुदेव (कृष्ण) कहलाना छोड़ दो, अन्यथा मुझसे युद्ध करो." भगवान ने उसके दूत को तिरस्कारपूर्ण सन्देश देकर वापस भेज दिया तथा अकेले ही रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी. पौन्ड्रक उन दिनों अपने मित्र काशिराज के पास ही रहता था. भगवान श्रीकृष्ण के आक्रमण का समाचार पाकर वह दो अक्षौहिणी सेना लेकर मैदान में आ डटा. उसका मित्र काशी-नरेश भी तीन अक्षौहिणी सेना के साथ सहायतार्थ उसके पीछे-पीछे आया. इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने वाणों से घमंडी राजा पौन्ड्रक के रथ को तोड़-फोड़ डाला और सुदर्शनचक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया. उसके मित्र काशी के राजा को भी सेना सहित मार दिया तथा वाणों के द्वारा उसके सिर को धड़ से ऊपर लिया और काशी में राजभवन के द्वार पर गिरा दिया. इस प्रकार पौन्ड्रक और उसके मित्र काशिराज को मारकर उनका उद्धार उद्धार कर दिया. तदोपरांत अपनी राजधानी द्वारिका लौट आए.
काशी-नरेश के सुदक्षिण नाम का एक पुत्र था. अपने पिता की इस प्रकार मृत्यु देखकर वह बड़ा क्रोधित हुआ और यादवों से बदला लेने के उद्देश्य से भगवान शंकर की तपस्या करने लगा. उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उसको दर्शन दिए और कहा - "तुम यज्ञ के देवता की आराधना करो, उससे कृत्या नाम की राक्षसी उत्पन्न होगी. जो ब्राह्मणों का भक्त नहीं होगा कृत्या उसे नष्ट कर देगी." तब उसने आराधना करके जलती हुई अग्नि के समान भयंकर रूपवाली कृत्या को उत्पन्न किया. येसा करते हुए सुदक्षिण यह भूल गया कि श्रीकृष्ण तो स्वयम ब्रह्मण्यदेव है, कृत्या उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती . उसने उस राक्षसरूपी कृत्या को यदुवंशियों के विनाश हेतु द्वारिका भेज दिया. द्वारिकावासी अभिचार की अग्नि को निकट आई देख कर वैसे ही डर गये जैसे जंगल में आग लगने पर हिरण डर जाते हैं. भयाकुल हो वे अपनी रक्षा हेतु भगवान कृष्ण के पास गये. अन्तर्यामी भगवान को समझते हुए तनिक भी देर नहीं लगी कि यह काशी से चली हुई राक्षसी कृत्या है. प्रतिकार स्वरुप उन्होने अपना सुदर्शन चक्र उसके पीछे छोड़ दिया. चक्र के भय से कृत्या उलटी काशी भाग गई. वहां आकर उसने सुदक्षिण और उसके सहयोगी यज्ञकर्ताओं को जलाकर भस्म कर दिया और स्वयम यज्ञकुण्ड में लीन हो गई. उसके पीछे लगा भगवान कृष्ण का चक्र भी काशी आया. चक्र ने पूरे नगर को जलाकर भस्म कर दिया और तत्पश्चात लीलामयी भगवान श्रीकृष्ण के पास द्वारिका लौट आया.

~~~~~~~~~~~~~~
जय श्रीकृष्ण
~~~~~~~~~~~

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

राजा नृग का मोक्ष



कथा त्रेता युग की है।  इक्ष्वाकु-वंशीय नृग नामक  एक राजा थे, ।  वह बहुत साहसी थे।    धर्मात्मा और दानी भी थे । प्रतिदिन लाखों गायें ब्राहमणों को दान किया करते थे ।  एक बार दान की हुई एक गाय राजा के यहाँ वापस आगयी और  गौशाला में अन्य गायों के साथ  रहने लगी।  राजा को यह बात मालूम न थी।  अनजाने में  राजा ने वह गाय दूसरे  ब्राह्मण  को दान कर दी। इस प्रकार  राजा  को दान की हुई  वस्तु  वापस लेकर पुनः दान करने का पाप लगा। इस   पाप से राजा  को दूसरे जन्म में  गिरगिट होना पडा।

विशालकाय गिरगिट के रूप में राजा नृग   द्वारिका के समीप  एक सूखे कुएं में  बहुत दिनों तक  भूखे-प्यासे पडे   रहे ।  एक दिन कुछ बालक खेलते हुए  उस कुएं पर गये।    सूखे कुएं में भारी-भरकम गिरगिट की  बुरी दशा    देख उनको दया आ गई। बालकों ने उसे बाहर निकालने  का  प्रयास किया, किन्तु  सफल नहीं हुए।   वे दौड़ते  हुए  श्रीकृष्णचन्द्र के पास गए, उनको  जानकारी दी ।  बालकों  के मुख से असहाय प्राणी की दयनीय दशा सुनकर दयालु भगवन  उसी क्षण  वहाँ गए । कुएं के अन्दर प्रवेश किया  और  कमल के समान सुकोमल चरणों से  गिरगिट के शरीर को छू दिया । भगवान के चरण लगते ही राजा नृग पाप मुक्त हो  गये । उन्हें गिरगिट-देह से छुटकारा मिल गया। वे सुंदर सुशोभित रूपवान काया में   देवता  बन गए। देवरूप प्राप्त कर जब वे धरती पर खड़े हुए,  तो देखते हैं कि परमपिता परमेश्वर भगवान श्री कृष्ण मनोहर मुस्कान लिए उनके समक्ष खड़े है। दीनदयाल प्रभु  के साक्षात  के दर्शन  पाकर राजा धन्य हो गया।  खुशी से झूम उठा  और  नतमस्तक हो उनको प्रणाम किया।  प्रफुल्लित ह्रदय  से  प्रभु  का गुणगान करते हुए  विमान में बैठकर वह वैकुण्ठधाम गये । 

जय श्रीकृष्ण

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

गोवर्धन पूजा



गोवर्धन पूजा (अन्नकूट)
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा को गोवर्धन पूजा की जाती है. वेदों में इस दिन वरुण, इंद्र, अग्नि आदि देवताओं की पूजा का विधान है. इसी दिन बलि पूजा,अन्नकूट,मार्गपाली आदि उत्सव भी संपन्न होते हैं. अन्नकूट या गोवर्धन पूजा भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से आरंभ हुआ. उस समय लोग इंद्र देवता की पूजा करते थे तथा अनेक प्रकार के भोजन, पकवान व मिठाइयाँ आदि बनाकर भोग लगाया जाता था.
एक दिन शाम को श्रीकृष्ण गाय चराकर लौटे तो उन्होंने देखा की ब्रज के गोप किसी यज्ञ की तैयारी कर रहे है. पूछने पर नन्दबाबा ने बताया कि वर्षा के देवता इंद्र को प्रसन्न करने के लिए पूजन होने वाला है. यदि पूजा से वे प्रसन्न हो जाएँ तो ब्रज में वर्षा होती है जिससे अन्न पैदा होता है तथा ब्रजवासियों का भरण-पोषण होता है. भगवान श्रीकृष्ण अभिमानी इंद्र का घमंड दूर कर देना चाहते थे इसलिए नंदजी के यह वचन सुनकर उन्होंने कहा- " गोवर्धन पर्वत इंद्र से अधिक शक्तिशाली है तथा इसी पर्वत के कारण यहाँ वर्षा होती है. इसलिए इंद्र की पूजा बंद करके गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चहिये." काफी वाद-विवाद के बाद श्रीकृष्ण की बात मानी गई और इंद्र की पूजा के स्थान पर गिरिराज गोवर्धन के पूजन का निश्चय कर दूसरे दिन सुबह ब्रज की सभी गोप-गोपियाँ ने उस पर्वत की तराई में जाकर बड़े धूम-धाम से विधिपूर्वक यज्ञ को संपन्न किया.
देवताओं के राजा इंद्र को जब नारद मुनि के द्वारा यह ज्ञात हुआ कि ब्रज में गोपों ने मेरा यज्ञ बंद कर दिया है, तब उन्हें बड़ा क्रोध आया. उन्होंने उसी समय प्रलय करने वाले बादलों को बुलाकर आज्ञा दी कि वे भयंकर वर्षा करके सारे ब्रज को पानी में डुबो दें. प्रलय के बादल अपने स्वामी देवराज इंद्र की आज्ञा का पालन करते हुए सम्पूर्ण ब्रज मंडल में मोटी-मोटी बूदों वाली मुसलाधार वर्षा आरम्भ कर दी. देखते ही देखते ब्रज में चारों ओर पानी ही पानी भर गया. था. ओलों की बड़ी-बड़ी शिलाएं आकाश से गिरने लगी. उस समय पृथ्वी पर ऊँचा नीचा कहीं नहीं दिखाई पड़ रहा अत्यंत वेग से वर्षा होने व प्रलयरूपी प्रचंड पवन के चलने से सब पशु-पक्षी थर-थर कांपने लगे. तदन्तर सब गोप-गोपियाँ शीत लगने से व्याकुल होकर श्रीकृष्ण भगवान की शरण में गए और उनसे अपने प्राण बचाने की प्रार्थना करने लगे. अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण जान गए कि यह सब उत्पात महाक्रोधी इंद्र कर रहे है. तब वे गिरिराज गोवर्धन के पास गए और उस सात कोस लम्बे चौड़े पर्वत को बाएं हाथ की कनिष्ठ अंगुली पर रखकर तिनके की भांति ऊपर उठा लिया और छाता सा तान दिया. भगवान ने तब गोपों से कहा-" तुम लोग डरो मत, अपनी अपनी गायें और घर का सब समान लेकर इस पर्वत के नीचे आ जाओ." श्रीकृष्णचन्द्र के कहने पर मनमें विश्वास करके नन्द उपनन्द आदि गोपगण अपनी-अपनी गौवों व बछड़ों आदि को साथ लेकर उस पर्वत के नीचे गुफा में घुस गए.
बिना रुके सात दिन-रात मूसलाधार वर्षा होती रही, ओले पड़ते रहे, बिजली गिरती रही परन्तु बिना तनिक भी हिले भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सातों दिन-रात उंगली पर पर्वत को उठाये खड़े रहे. पर्वत के नीचे गोप-गोपियों को इस सब उत्पात का कुछ भी पता नहीं चला. पर्वत के ऊपर भगवान का सुदर्शन चक्र घूम रहा था. वह वर्षा के जल को सुखाता जा रहा था. इससे यमुना जी में बाढ़ भी नहीं आई.
सात दिन बाद प्रलय के बादलों का जल समाप्त हो गया. इन्द्रजी थक गए. उन्हें वर्षा बंद करनी पडी. ब्रह्माजी ने इंद्र को बताया कि पृथ्वी पर परमब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार ले लिया है. उनसे तुम्हारा वैर लेना उचित नहीं है. श्रीकृष्ण के अवतार की बात जानकर इन्द्रदेव बहुत लज्जित हुए और भगवान से क्षमा याचना करने लगे. श्रीकृष्ण ने सातवें दिन गोवर्धन पर्वत को नीचे रखा और ब्रजवासियों से कहा कि अब तुम सब प्रति-वर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व मनाया करो. तभी से यह पर्व प्रति-वर्ष मनाया जाने लगा.
अन्नकूट एक प्रकार से सामूहिक भोज का आयोजन है. जिसमे पूरा परिवार और वंश एक जगह बनाई गई रसोई से भोजन करता है.

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

दिवाली



महीनों से घर  आँगन की मरम्मत, सफेदी, रंग-रोगन  साफ-सफाई  करते करते थक चुके हैं। जिस पर्व को अलंकृत करने के लिए इतने दिनों से  तैयारी में जुटे थे, वह  दिन  आ ही गया।  मन खुशियों से भर गया -  आज दीप-मालाओं का त्यौहार  दिवाली जो  है। दिवाली का दूसरा नाम  प्रकाश पर्व  है। प्रकाश- जिसके अभाव में जीवन  की कल्पना भी नहीं की जा  सकती।  प्रकाश-जो मानव जीवन में  प्रसन्नता का सूचक है- चाहे वह आंतरिक प्रसन्नता हो या फिर  बाह्य प्रसन्नता। ऊर्जा - जिसके बिना   जीवन  गलिशील नहीं हो सकता, उसका   एक मात्र श्रोत  प्रकाश ही है।

कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली का पर्व बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है. इसे दीप-मालाओं का त्यौहार , रोशनी का त्यौहार अथवा प्रकाश-पर्व भी कहा जाता है. ब्रह्मपुराण के अनुसार कार्तिक अमावस्या को अर्धरात्रि के समय माँ लक्ष्मी सद-गृहस्थों के मकानों में यत्र-तत्र विचरण कारती हैं. इसलिए इसदिन घर-बाहर को खूब साफ़ करके सजाया-संवारा जाता है. लक्ष्मी-गणेश जी के साथ सरस्वती मैया की पूजा की जाती है.
कहा जाता है कि कार्तिक अमावश्या को भगवान श्रीरामचन्द्रजी चौदह वर्ष का वनवास काट कर तथा आसुरी वृत्तियों के प्रतीक रावण आदि को मारकर अयोध्या लौटे थे. इस खुशी में अयोध्या-वासियो ने दीपमालाएँ जलाकर महोत्सव मनाया था. इस दिन उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राजतिलक भी हुआ था. विक्रमी संवत का आरंभ तभी से माना जाता है. अतः यह नव-वर्ष का प्रथम दिन भी है. दीपावली के दिन दीप जलाने की प्रथा के पीछे एक मान्यता यह भी है कि कार्तिक अमावस्या से पितरों की रात आरम्भ होती है. कहीं वे पथ-भ्रष्ट न हो जाएँ इसलिए प्रकाश का विधान किया जाता है. इस प्रथा का बंगाल में विशेष महत्त्व है.
दीपावली प्रकाश-पर्व है. पहले मिट्टी से बने दीवों में घी अथवा सरसों का तेल भरकर दीप जलाकर रोशनी की जाती थी. लेकिन समय परिवर्तन के साथ आधुनिकता के इस युग में रंग-विरंगी विद्युत्-लड़ियों का चलन अधिक हो गया है. रात्रि में मंदिरों, गुरुद्वारों, दुकानों,मकानों, चौपालों, चौबारों आदि सभी स्थानों पर जगमगाती तरह-तरह की विद्युत् लड़ियाँ बहुत ही शोभायमान होती है.
दीपावली जैसे शुभ अवसर पर जुआ खेलने की कुप्रथा भी है. द्युत-क्रीडा एक दुर्गुण है. पिछले कई वर्षों से एक और कुप्रथा ने तेजी से अपने पाँव पसार लिए हैं जिसके फलस्वरूप प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों ,आतिशबाजियों आदि का चलन बहुत बढ गया है. ये पटाखे पर्यावरण को प्रदुषित करके ग्लोबलवार्मिक को बढ़ाते हैं| इससे सुख-समृद्धि की कामना से मनाया जाने वाला दीपावली जैसे पवित्र पर्व का उद्देश्य ही अर्थहीन हो गया है. स्वस्थ एवं सुख-समृद्ध वाला जीवन केवल प्रदूषण-रहित वातावरण में ही संभव है. इसलिए हम सबका यह कर्तव्य है कि मानव-हित में पटाखों जैसे प्रदूषण फ़ैलाने वाली वस्तुओं के उपयोग से दूर रहें.
..nnmmmmmmmm

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

रासलीला (महारास) by Ram Avtar Yadav



अश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं. इसे रास पूर्णिमा भी कहते है. शरद ऋतु में आमतौर मौसम साफ़ रहता है. आकाश में न तो बादल होते है और नहि धूल के गुब्बार. सम्पूर्ण वर्ष में केवल अश्विन मास की पूर्णिमा का चंद्रमा ही षोडस कलाओं का होता है. कहा जाता है कि इस पूर्णिमा की रात्रि को चंद्रमा अमृत की वर्षा करता है. इस रात्रि में भ्रमण करना और चन्द्र किरणों का शरीर पर पड़ना बहुत ही शुभ माना जाता है. शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज -बालाओं के साथ वृन्दावन में महारास किया था.रास-लीला की कथा इस प्रकार है:-
चीर-हरण के समय श्रीकृष्ण ने सब गोपियों वचन दिया था कि हम शरद पूर्णिमा को तुम्हारे साथ रास करेंगे. तभी से वे सब आतुर होकर शरदऋतु के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी थी. इन्तजार करते-करते सुखदाई शरदऋतु आ ही गई. पूर्णिमा की रात थी. निर्मल आकाश से चंद्रमा लालिमा युक्त चांदनी लिए पृथ्वी पर अमृत की वर्षा कर रहा था. सघनवन में चारों ओर बेला चमेली आदि पुष्प खिले हुए थे जिससे सारा वातावरण सुगन्धित हो रहा था. मंद मंद शीतल पवन चल रही थी. तब श्रीकृष्ण भगवान ने गोपियों को दिए हुए वचन का विचार कर वृन्दावन में जाकर बांसुरी की मधुर तान छेड़ दी. वंशी की ऐसी मनमोहक धुन थी कि उसे सुनकर ब्रज की सभी गोपियाँ भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा आदि का त्याग कर, अपने अपने काम को ज्यों-का-त्यों छोडकर, उलटे-पुल्टे वस्त्र पहने हुए, जल्दी से जल्दी श्रीकृष्ण के पास पहुँचने के लिए चल पड़ी. गोपियाँ अपने अपने झुण्ड लिए श्रीहरि के समक्ष आ उनको चारों तरफ से घेर कर खड़ी हो गई. प्रभु ने सबका कुशल-क्षेम पूछा, फिर कहा- "कहो! रात के समय उलटे-पुल्टे बस्त्र-आभूषण धारण कर, कुटुंब की माया तजकर इतनी घबराई हुई इस महावन में कैसे आना हुआ. ऐसा साहस करना नारियों के लिए उचित नहीं है. तुम सबने सघन-वन की निर्मल चांदनी का आनंद ले लिया है, अब अपने-अपने घर वापस जाओ." श्री नारायण के मुख से ऐसे कठोर वचन सुन कर गोपियाँ बोली-" हे मनमोहन! तुम बड़े ठग हो. पहले तो मोहिनी तान सुनाकर हमारा ज्ञान, ध्यान, तन, मन सब हर लिया, अब निर्दयी होकर हमारे प्राण हारना चाहते हो." तब श्रीहरि ने मुस्कारा कर सभी गोपियों को अपने निकट बुलाया और कहा-"यदि तुम सबकी यही इच्छा है तो आज की रात हमारे साथ रास खेलो."
लीलामयी भगवान ने तब अपनी माया को आज्ञा देकर यमुना के तट पर हीरे-मोती से युक्त सुन्दर मंडलाकार चबूतरा बनवाया. सभी गोपियों ने एक सरोवर के किनारे जाकर सुथरे वस्त्र-आभूषण पहनकर श्रृंगार किया, अच्छे-अच्छे बाजे, घुँघरू आदि बाँध-बाँध वे उस चबूतरे पर एकात्रित हुईं और प्रेममद में बिना संकोच किये श्रीकृष्ण के साथ नाचने-गाने लगी. श्रीकृष्ण गोपियों के बीच ऐसे सुहावने लग रहे थे जैसे तारों के मंडल में चंद्रमा शोभायमान होता है. इस प्रकार क्रीडा-कला द्वारा नन्द-नंदन गोपियों को आनंदित करने लगे. श्रीकृष्ण भगवान से उन गोपियों को बहुत मान मिला. इस तरह मानवती होकर वे स्वयं को भूमंडल की अन्य स्त्रियों से श्रेष्ठ समझने लगी. वे समझने लगी कि इस भू-मंडल पर अब हमारे समान कोई और नहीं है. तदन्तर गर्व-प्रहारी श्रीहरि ने गोपियों के अहंकार को दूर करने के लिए उनके बीच से अंतर्धान हो गए.
एकाएक श्रीभगवान को न देखकर वे सब इस प्रकार व्याकुल हो गयीं जैसे मणि के खो जाने पर सर्प व्याकुल हो जाता है. श्रीहरि नारायण का गुणगान करती हुई वे वन में चारों तरफ घूम-घूम कर उनको ढूँढने लगी, जगह-जगह पेड़-पौधों, फूल- पत्तियों, पशु-पक्षियों आदि से नन्दकिशोर का पता पूछती हुई फिरने लगी. अंत में थक कर यमुना के तटपर आकर भगवान का ध्यान करती हुई उनके आने की अभिलाषा लिए हुए उनका गुणगान करने लगीं. इस तरह सारे प्रयत्न करने के उपरान्त भी जब श्रीभगवन नहीं मिले तो सब निराश होकर ऊँचे-ऊँचे स्वर में रोने लगी. उस समय मंद-मंद मुस्कान लिए, पीताम्बर पहने, बनमाला धारण किये साक्षात कामदेव को मोहित कर लेने वाले श्रीकृष्णचन्द्र उन गोपियों के बीच प्रकट हो गए. उनको देखते ही गोपियाँ एकाएक विरह-सागर से निकल प्रसन्नता से झूमती हुई वे सब उनके पास गईं और नतमस्तक हो उनको चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गईं. तब कृष्णचन्द्र उनको लेकर उसी स्थान पर गए, जहां पहले रास-विहार किया था.
लीलामयी नारायण की अदभुद लीला देखो, जितनी गोपियाँ थीं , उतने ही कृष्ण वहां मौजूद थे. प्रत्येक बाला के साथ एक-एक नन्दकिशोर एक दूसरे को गल-बहियाँ डाले नृत्य करते दिखाई पड़ रहे थे. उस समय प्रत्येक गोपी यह समझ रही थी कि श्रीभगवान केवल मेरे ही समीप हैं. उस अदभुद नृत्य क्रीडा को देखने के लिए स्वर्ग के सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आ पहुंचे श्रीभगवान विहार करते-करते जब थक गए, तब थकावट दूर करने के लिए गोपियों को साथ लिए यमुना के निर्मल जल जा घुसे. जल-क्रीडा करते हुए सभी ने एक दूसरे पर पानी उलच-उलच कर स्नान किया. तदोपरांत जब बाहर आए, तब यदुनंदन श्रीकृष्ण ने गोपियों से कहा-'अब चार घड़ी रात बाकी है, तुम सब अपने-अपने घर जाओ." इतना सुन गोपियाँ उदास मन से कहने लगीं-"हे नाथ! आपके चरण छोड़कर हम घर कैसे जाएँ?." तब श्रीकृष्ण सबको समझाते हुए बोले-"सुनो, जैसे योगीजन मेरा ध्यान करते है, तुम सब उसी तरह मेरा ध्यान करना तब तुम जहाँ भी रहोगी मै सदा तुम्हारे पास रहूँगा." इतनी बात सुनकर संतोषपूर्ण विदा हो वे सब अपने अपने घर गईं. प्रभु कृपा से उनके घरो में सब सोये हुए थे. इसलिए उनके घर-वालों में से किसी को कुछ भी पता नहीं चला.

जय श्रीकृष्ण!

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।i
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभागवद्महापुराण)


अर्थ:

यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.