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शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

जीवित है रावण

बुराई पर अच्छाई की विजय -विजयदशमी


तुलसीदास कृत श्रीरामचरित मानस के लंका काण्ड में एक  कथा आती है।  कथा उस समय की है जब श्रीराम-रावण युद्ध निर्णायक स्थिति में पहुँच चुका  था।  युद्ध के मैदान में श्रीराम और रावण आमने सामने थे । सहायतार्थ दोनों पक्षों की सेनाये भी  डटी हुई थीं। एक दूसरे पर भीषण प्रहार कर रहे थे।  मायावी शक्तियों का सहारा लेकर रावण ने श्रीराम की सेना में हाहाकार मचा रखा था।इस दौरान एक ऐसा समय आया जब -


                   गहि भूमि पारयो लात मारयो बालिसुत प्रभु पहिं गयों।
                   सम्भारि उठि दसकन्धर शब्द कठोर रव गर्जत भयो।
                   करि दापि  चापि  चढाइ दस  संधानि सर  बहु  बरसहीं।
                  किये सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषहीं।

अंगद जी ने रावण के पैर पकड़ कर धरती पर गिरा दिया।  उसको लात मारकर  श्रीराम के पास चले गए। इस बीच रावण संभल कर उठा और भयंकर शब्दों में गर्जना करने लगा। बड़े घमंड से एक साथ (अपने बीस हाथों से)  दस धनुष पकड़ा,   उनमें वाण संधान किया और  एक साथ बहुत से वाणों की वर्षा करने लगा।  इस प्रकार उसने  रामादल के सब  योद्धाओं को घायल कर दिया। अपने बल को देखकर वह (रावण) बहुत प्रसन्न हुआ। तब-

              तब रघुपति रावन के, सीस भुजा सर चाप।
              काटे बहुत बढ़ पुनि, जिमि तीरथ कर पाप।

श्रीरघुनाथजी ने (वाण चलाकर ) रावण के सिर, भुजा और उसके धनुष-वाण सब काट डाले।  लेकिन वे सब  न  केवल  पुनः उसी रूप में प्रकट हो गए,  बल्कि उससे बढ़कर ज्यादा संख्या में उत्पन्न हो गये , जैसे तीरथ में किये हुये पाप बढ़ जाते हैं।

श्रीराम द्वारा बार बार सिर और भुजा काटने पर भी लंकापति रावण नहीं मरता -

                काटे सिर भुज बार बहु, मरत न भट लंकेस। 
                प्रभु क्रीडत सुर सिद्ध मुनि, व्याकुल देखि कलेस। 

भगवान श्रीराम तो लीला कर रहे थे, किन्तु सिद्ध,मुनि और देवता क्लेश देखकर व्याकुल हो रहे थे।

               काटत बढ़हि सीस समुदाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई। 
              मरत न रिपुश्रम भयउँ विसेषा। राम विभीषन तनु तब देखा। 

काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता था, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ जाता है। अधिक परिश्रम करने पर भी शत्रु नहीं मर रहा था, तब ( रहस्य जानने के लिये)  श्रीरामजी ने विभीषण की ओर देखा। तब  रहस्य बताते हुए विभीषण जी कहते हैं -
   
              नाभिकुण्ड पीयूष बस जाके।  नाथ जिअत रावनु बल ताके। 
              सुनत विभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला। 

हे नाथ! रावण की  नाभिकुण्ड में अमृत भरा हुआ है, उसी के बल से वह जीवित रहता है। विभीषण के यह वचन सुनकर श्रीराम प्रसन्न हो गए और कराल  वाण हाथ में ले लिया। और -

            खैंचि सरासन श्रवन लगि, छाँड़े  सर इकतीस। 
            रघुनायक सायक चले, मानहु काल फनीस।  

कान तक धनुष खींचकर इकत्तीस  वाण छोड़े। श्रीरघुनाथजी के वाण ऐसे चले, मानो काल रुपी साँप हों। 

            सायक एक नाभि सर सोखा।  अपर लगे भुज सिर करिरोषा। 
            लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा। 

एक वाण से नाभिकुण्ड के अमृत को सुखा डाला।  बाकी तीस वाण क्रोध पूर्वक सिरों और भुजाओं में जा लगे। वाण  सिरों और भुजाओं को ले चले। बिना सर और भुजाओं का शरीर पृथ्वी पर नाचने लगा।  

अंततः भगवान  श्रीराम  दुष्ट, पापी, राक्षस,  आतताई रावण को  मारने में सफल हुए।  देव, महादेव, ब्रह्मा जी आदि सब प्रसन्न हुये।  पूरे ब्रह्माण्ड में जय जय की ध्वनि छा  गई। देवता मुनिगण सब फूल बरसाने लगे।  

प्रभू श्रीराम ने लंकापति रावण को मार दिया।  उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी।  लेकिन उसकी प्रजाति आज भी जीवित है।आज भी असंख्य रावण भूमि पर विद्यमान है।  हत्या, चोरी, डकैती , बेईमानी,लूट-खसूट, घूसखोरी, बलात्कार आदि  सब उसकी भुजायें और सिर हैं।सरे आम सरे बाजार घूमते  है।  दिन दहाड़े  माताओं-बहनो का अपहरण करते है। मनमानी करते  है  दहाड़ते  है   चीखते   चिल्लाते  है,  डराते  है, ठठा कर  हँसते   है।  एक को मारो,  दस पैदा हो जाते है।  उसके खून के छींटे जहाँ पड़ते है, वहीं दस-बीस नए रावण उत्पन्न  हो जाते हैं। लाख कोशिश करने के बावजूद वे मर नहीं  रहे  है।  इन रावणों को मारने के लिए सचमुच श्रीराम प्रभु के अवतार लेने की  आवश्यकता है, जो इनकी नाभि कुण्ड में वाण मार कर अमृत को सुखा दे।  इनकी जड़ सुखा दे, जिससे पुनः अंकुरित न हो सके।मनुष्य के कल्याण हेतु  भगवान श्रीनारायण अवश्य  अवतार लेंगें।  मन में है विश्वास। 

जय श्रीराम !

विजयदशमी के पावन पर्व पर आप सभी को  हार्दिक बधाई । 


             


         



           

         









1 टिप्पणी:


वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।i
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभागवद्महापुराण)


अर्थ:

यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.