प्रकृति का नियम है कि इस संसार में जो आया है वह जायेगा। अर्थात मृत्यु
अटल सत्य है। किन्तु कुछ व्यक्ति अपनी योग्यता .वीरता, पराक्रम और बलिदान
से मृत्यु को परास्त करके सदा के लिए अमर हो जाते है। यदुकुल के महान-
योद्धा राव तुलाराम का नाम ऐसे ही अमर बलिदानियों की श्रेणी में आता है।
पराक्रम और शौर्य की बदौलत उनका नाम इतिहास के पन्नो में सदा अग्रिम
पंक्तियों और स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता रहेगा।
राव तुलाराम का जन्म 9 दिसंबर 1825 में हरियाणा प्रान्त के रेवाड़ी जिले में एक यादव राज-घराने ( Royal family) में हुआ। उनके पिता का नाम राव पूर्णसिंह तथा माता का नाम ज्ञान कौर था। सन 1939 ईo में उनके पिता का देहांत हो गया। उस समय तुलाराम की आयु मात्र 14 वर्ष थी। पिता की मृत्यु के बाद उनको रेवाड़ी रियासत की गद्दी सौंप दी गई। किन्तु उनके भविष्य का सारा भार माता ज्ञान कौर के कन्धों पर आन पड़ा। कर्तव्यपरायण दूरदर्शी माँ ने अपने कर्तव्यों का पूर्णरूप से निर्वाह करते हुए किशोर तुलाराम को भारतीय संस्कृति, उर्दू, फारसी, हिंदी, धर्म, योग आदि समस्त विषयों की शिक्षा प्रदान करवाई। उनको भारत के वीरों और वीरांगनाओं की गाथाये सुना सुना कर बहादुर और निडर बनाया। राजकुल की परंपरा के अनुसार अस्त्र-शास्त्र, घुड सवारी आदि की शिक्षा दी गई। तुलाराम की बुद्धि बहुत प्रखर थी जिससे वह राजकाज के कार्यों को ठीक ढंग से निपटाने में सफल हुए। अपने व्यवहार और संस्कार से पारिवारिक शांति स्थापित की। राव तुलाराम के तीन रानियाँ रानियाँ थीं। राव तुलाराम के पूर्वजों के पास 87 गावों पर आधारित जागीर थी जिसकी कीमत 20 लाख रूपये थी। देश भक्ति का परिचय देते हुए राव राज-वंश ने मराठा-ब्रिटिश संघर्ष के समय मराठों का साथ दिया था। इससे नाराज होकर फिरंगियों ने उनकी जागीर को धीरे-धीरे घटाकर इतना छोटा कर दिया था कि उसकी कीमत मात्र एक लाख रूपये रह गई थी। अतएव फिरंगी सरकार से रेवाड़ी के राजवंश का नाराज होना स्वाभाविक था।
ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी का राज्य 1757 में प्लासी के युद्ध से शुरू हुआ था और अगले सौ वर्षों में कंपनी ने धीरे धीरे छल-बल से लगभग सम्पूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया । इस बीच गोरे फिरंगी भारत-वासियों पर तरह तरह के जुल्म ढाते रहे। इस विदेशी जाति ने भारत के मुसलमान बादशाहों एवं हिन्दू राजाओं को अपनी कूटनीति से बुरी तरह कुचल दिया। देश का धन लूटा जाने लगा। धीरे धीरे उत्पीड़न, अत्याचार और शोषण इतना बढ़ गया कि भारत-वासियों के लिए कंपनी का शासन असह्य हो गया। लोग अंग्रेजों के चंगुल से छुटकारा पाने के लिए बेताब हो गए। इस बीच विद्रोह की छुट-पुट कई घटनाये हुई किन्तु कंपनी की फ़ौज हर बार उसे विफल करने में सफल रही। लेकिन जनता कभी चुप नहीं बैठी। गुलामी की जंजीरों से छुटकारा पाने के लिए अन्दर ही अन्दर तैयारी करने में लगी रही। 1857 ई आरंभ होने तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चुका था।
कम्पनी की सेना में ब्रिटेन-वासियों के साथ भारतीय नागरिक भी शामिल थे। भारतीयों में अधिकतर हिन्दू और मुसलिम धर्म के लोग ही थे। 1856 ई में कंपनी ने पुरानी बंदूकों को बदल कर सैनिकों को नई किस्म की एनफील्ड रायफलें चलाने को दी। इन रायफलों के कारतूसों में चर्बी लगी होती थी, जिन्हें बंदूक में डालने से पहले मुह से काटना पड़ता था। कहा जाता है कि यह चर्बी गाय और सूअर की होती थी। 1857 के विद्रोह के कई कारण थे, किन्तु गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों ने भारत के हिन्दू और मुसलिम दोनों समुदाय के सैनिकों की धार्मिक भावनाओं को पूरी तरह भड़का दिया था। इससे आक्रोशित हो मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को बंगाल की बैरकपुर छावनी में अंग्रेज अफसरों को गोलियों से भून दिया। इस विद्रोह का दूरगामी परिणाम निश्चित था। बगावत के जुर्म में फिरंगियों ने मंगल पांडे को कैद कर लिया और 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फ़ांसी के तख्ते पर लटका दिया। उनके इस बलिदान से निकली आग की लपटों ने ज्वालामुखी का रूप धारण कर लिया और देखते ही देखते वह आग समस्त भारत में फ़ैल गई। झाँसी,कानपुर, ग्वालियर,दिल्ली. मेरठ आदि कई जगहों पर उग्र विद्रोह आरंभ हो गये। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे मुग़ल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफ़र, 80 वर्ष के महान क्रन्तिकारी वीर कुंवर सिंह आदि आजादी के जंगे -मैदान में कूद पड़े। ऐसे में भला वीर यदुवंशी योद्धा राव तुलाराम कैसे चुप बैठ सकते थे। स्वतंत्रता के इस महासंग्राम में उन्होंने भी खूब बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।
स्वाधीनता की वास्तविक लड़ाई मेरठ से आरंभ हुई। मेरठ में अंग्रेज शासकों का एक बड़ा सैनिक अड्डा था। बंगाल-सेना में फैले असंतोष और मंगल पांडे की फांसी वाली घटना से उत्पन्न आग की लपटें मेरठ तक पहुँच चुकी थी। परिणाम स्वरुप यहाँ के अधिकांश भारतीय सैनिकों ने भी चर्बी लगे कारतूसों को चलाने से मना कर दिया। 9 मई 1857 को इस जुल्म के लिए 85 भारतीय सिपाहियों को कठोर कारावास का दण्ड सुनाया गया। उनकी वर्दी उतरवा ली गई और बेड़ियों में बाँध कर सेना के समक्ष परेड कराई गई। तत्पश्चात उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। अंग्रेजों के इस क्रूर कदम से मेरठ शहर और छावनी में हर जगह अशांति फ़ैल गई। परिणाम स्वरुप मेरठ छावनी के भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजी शासन के प्रति खुला विद्रोह कर दिया। राव तुलाराम के चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल ने, जो उस समय मेरठ में कोतवाल के पद पर तैनात थे, इस सैनिक विद्रोह का नेतृत्व किया। विद्रोह इतना जोरदार था कि इसमें बहुत से ब्रिटिश नागरिक और सैनिक एवं असैनिक अग्रेज अफसर देखते ही देखते मौत के घाट उतार दिये गए। बगावती सैनिकों ने जेल के फाटक तोड़ दिए और बंदी बनाये गए 85 साथी सिपाहियों के अतिरिक्त जेल में बंद 800 अन्य कैदियों को भी छुड़ा लिया। राव कृष्ण गोपाल ने बड़ी मुस्तैदी से अग्रेजी सैनिकों का सामना किया और फिरंगी सेना को बुरी तरह पराजित कर दिया। बगावती सेना जीत का परचम लहराते हुए दिल्ली की ओर कूच कर गयी। 11 मई को क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली पहुंचे। 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मुग़ल सम्राट बहादुर शाह को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। रेवाड़ी में राव तुलाराम भी स्वाधीनता के लिए प्रयत्नशील थे। यह बात राव कृष्णगोपाल जानते थे। इसलिए मेरठ और दिल्ली में विजय पताका फहराने के बाद अपने बहादुर सिपाहियों को साथ लेकर वे रेवाड़ी आ गए। रेवाड़ी पहुचने पर उनका भब्य स्वागत किया गया। राव तुलाराम अपने भाई के कारनामों से बहुत गर्वित हुए थे।
विद्रोह के चंद दिनों बाद राव तुलाराम ने रेवाड़ी में स्वतंत्रता संग्राम की आग तेज कर दी। अपने चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल को उन्होंने सेनापति नियुक्त किया। वहाँ की जनता मे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने का साहस पैदा किया। सेना में नई भरती करके सैन्य शक्ति को सुदृढ़ बनाया। तत्पश्चात 17 मई, 1857 को पांच सौ यदावों की फ़ौज ने तहसील मुख्यालय पर धावा बोल दिया। तहसीदार तथा थानेदार को बाहर निकल कर तहसील के खजाने और सरकारी दफ्तरों आदि पर पूर्ण रूप से कब्ज़ा कर लिया। राम तुलाराम ने स्वयं को रेवाड़ी, भोरा और शाहजहानपुर परगनों के 421 गावों का शासक घोषित कर दिया। रेवाड़ी के निकट रामपुर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया।वे अपने कुशल प्रशासन के बल पर वह थोड़े ही समय में राजस्व, दान और ऋण के रूप में लाखों रुपये एकत्रित करने में सफल हो गए। इससे उनकी आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत हो गयी। इसके बल पर राव तुलाराम ने रामपुर में तोप, बन्दूक और गोला-बारूद बनाने का कारखाना स्थापित किया। राज्य में आन्तरिक कानून व्यवस्था बेहतर बनाये रखने के साथ बाहरी हमलों से बचाव के लिए भी व्यापक प्रबंध किये गए।
राव तुलाराम की बढ़ती ताकत की सूचना मिलने पर कंपनी के अंग्रेज- हुक्मरान हैरान रह गए। अहीर शक्ति को नष्ट करने के लिए 2 अक्टूबर, 1857 को जनरल सोबर्स के नेतृत्व में फिरंगीयों की एक शक्तिशाली सेना रेवाड़ी पर आक्रमण के लिए भेजी गई । राव साहब द्वारा निर्मित रामपुर का किला गारे(mud) से बना था। गारे से निर्मित किले से शक्तिशाली सेना का मुकाबला संभव नहीं था। स्थिति को भाँपकर तुलाराम जी तुरंत रेवाड़ी से हट गए और अपनी सेना लेकर वे महेद्रगढ़ की ओर बढ़ गए। वे महेंद्रगढ़ किले से युद्ध करना चाहते थे। किन्तु मेन्द्र्गढ़ के राजा अंग्रेजों से मिल गया था इसलिय उसने किला देने से इंकार कर दिया। फिर भी तुलाराम जी हिम्मत नहीं हारे। दृढ संकल्प लिए उन्होंने युद्ध का मैदान नसीबपुर को बनाया। अंग्रेजी सेना के नसीबपुर पहुचते ही राव साहब ने वहाँ धावा बोल दिया और भीषण लड़ाई शुरू हो गई। देशभक्त सेना का आक्रमण इतना जोरदार था ब्रिटिश सैन्य व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। तीन दिन तक चले इस भीषण युद्ध में नसीबपुर की धरती खून से लाल हो गई थी। अंग्रेजी सेना में त्राहि-त्राहि मच गई उनको प्राण बचाना मुश्किल हो गया । इस युद्ध में शामिल अधिकांश गोरे सिपाही मार दिए गए ,जो बचे वे मैदान छोडकर भाग खड़े हुए। भागने वालों में ब्रिटिश कमांडर जनरल रिचर्ड भी शामिल था। अंग्रेजों को हार का सामना करना पड़ा।
राव तुलाराम का जन्म 9 दिसंबर 1825 में हरियाणा प्रान्त के रेवाड़ी जिले में एक यादव राज-घराने ( Royal family) में हुआ। उनके पिता का नाम राव पूर्णसिंह तथा माता का नाम ज्ञान कौर था। सन 1939 ईo में उनके पिता का देहांत हो गया। उस समय तुलाराम की आयु मात्र 14 वर्ष थी। पिता की मृत्यु के बाद उनको रेवाड़ी रियासत की गद्दी सौंप दी गई। किन्तु उनके भविष्य का सारा भार माता ज्ञान कौर के कन्धों पर आन पड़ा। कर्तव्यपरायण दूरदर्शी माँ ने अपने कर्तव्यों का पूर्णरूप से निर्वाह करते हुए किशोर तुलाराम को भारतीय संस्कृति, उर्दू, फारसी, हिंदी, धर्म, योग आदि समस्त विषयों की शिक्षा प्रदान करवाई। उनको भारत के वीरों और वीरांगनाओं की गाथाये सुना सुना कर बहादुर और निडर बनाया। राजकुल की परंपरा के अनुसार अस्त्र-शास्त्र, घुड सवारी आदि की शिक्षा दी गई। तुलाराम की बुद्धि बहुत प्रखर थी जिससे वह राजकाज के कार्यों को ठीक ढंग से निपटाने में सफल हुए। अपने व्यवहार और संस्कार से पारिवारिक शांति स्थापित की। राव तुलाराम के तीन रानियाँ रानियाँ थीं। राव तुलाराम के पूर्वजों के पास 87 गावों पर आधारित जागीर थी जिसकी कीमत 20 लाख रूपये थी। देश भक्ति का परिचय देते हुए राव राज-वंश ने मराठा-ब्रिटिश संघर्ष के समय मराठों का साथ दिया था। इससे नाराज होकर फिरंगियों ने उनकी जागीर को धीरे-धीरे घटाकर इतना छोटा कर दिया था कि उसकी कीमत मात्र एक लाख रूपये रह गई थी। अतएव फिरंगी सरकार से रेवाड़ी के राजवंश का नाराज होना स्वाभाविक था।
ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी का राज्य 1757 में प्लासी के युद्ध से शुरू हुआ था और अगले सौ वर्षों में कंपनी ने धीरे धीरे छल-बल से लगभग सम्पूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया । इस बीच गोरे फिरंगी भारत-वासियों पर तरह तरह के जुल्म ढाते रहे। इस विदेशी जाति ने भारत के मुसलमान बादशाहों एवं हिन्दू राजाओं को अपनी कूटनीति से बुरी तरह कुचल दिया। देश का धन लूटा जाने लगा। धीरे धीरे उत्पीड़न, अत्याचार और शोषण इतना बढ़ गया कि भारत-वासियों के लिए कंपनी का शासन असह्य हो गया। लोग अंग्रेजों के चंगुल से छुटकारा पाने के लिए बेताब हो गए। इस बीच विद्रोह की छुट-पुट कई घटनाये हुई किन्तु कंपनी की फ़ौज हर बार उसे विफल करने में सफल रही। लेकिन जनता कभी चुप नहीं बैठी। गुलामी की जंजीरों से छुटकारा पाने के लिए अन्दर ही अन्दर तैयारी करने में लगी रही। 1857 ई आरंभ होने तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चुका था।
कम्पनी की सेना में ब्रिटेन-वासियों के साथ भारतीय नागरिक भी शामिल थे। भारतीयों में अधिकतर हिन्दू और मुसलिम धर्म के लोग ही थे। 1856 ई में कंपनी ने पुरानी बंदूकों को बदल कर सैनिकों को नई किस्म की एनफील्ड रायफलें चलाने को दी। इन रायफलों के कारतूसों में चर्बी लगी होती थी, जिन्हें बंदूक में डालने से पहले मुह से काटना पड़ता था। कहा जाता है कि यह चर्बी गाय और सूअर की होती थी। 1857 के विद्रोह के कई कारण थे, किन्तु गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों ने भारत के हिन्दू और मुसलिम दोनों समुदाय के सैनिकों की धार्मिक भावनाओं को पूरी तरह भड़का दिया था। इससे आक्रोशित हो मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को बंगाल की बैरकपुर छावनी में अंग्रेज अफसरों को गोलियों से भून दिया। इस विद्रोह का दूरगामी परिणाम निश्चित था। बगावत के जुर्म में फिरंगियों ने मंगल पांडे को कैद कर लिया और 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फ़ांसी के तख्ते पर लटका दिया। उनके इस बलिदान से निकली आग की लपटों ने ज्वालामुखी का रूप धारण कर लिया और देखते ही देखते वह आग समस्त भारत में फ़ैल गई। झाँसी,कानपुर, ग्वालियर,दिल्ली. मेरठ आदि कई जगहों पर उग्र विद्रोह आरंभ हो गये। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे मुग़ल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफ़र, 80 वर्ष के महान क्रन्तिकारी वीर कुंवर सिंह आदि आजादी के जंगे -मैदान में कूद पड़े। ऐसे में भला वीर यदुवंशी योद्धा राव तुलाराम कैसे चुप बैठ सकते थे। स्वतंत्रता के इस महासंग्राम में उन्होंने भी खूब बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।
स्वाधीनता की वास्तविक लड़ाई मेरठ से आरंभ हुई। मेरठ में अंग्रेज शासकों का एक बड़ा सैनिक अड्डा था। बंगाल-सेना में फैले असंतोष और मंगल पांडे की फांसी वाली घटना से उत्पन्न आग की लपटें मेरठ तक पहुँच चुकी थी। परिणाम स्वरुप यहाँ के अधिकांश भारतीय सैनिकों ने भी चर्बी लगे कारतूसों को चलाने से मना कर दिया। 9 मई 1857 को इस जुल्म के लिए 85 भारतीय सिपाहियों को कठोर कारावास का दण्ड सुनाया गया। उनकी वर्दी उतरवा ली गई और बेड़ियों में बाँध कर सेना के समक्ष परेड कराई गई। तत्पश्चात उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। अंग्रेजों के इस क्रूर कदम से मेरठ शहर और छावनी में हर जगह अशांति फ़ैल गई। परिणाम स्वरुप मेरठ छावनी के भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजी शासन के प्रति खुला विद्रोह कर दिया। राव तुलाराम के चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल ने, जो उस समय मेरठ में कोतवाल के पद पर तैनात थे, इस सैनिक विद्रोह का नेतृत्व किया। विद्रोह इतना जोरदार था कि इसमें बहुत से ब्रिटिश नागरिक और सैनिक एवं असैनिक अग्रेज अफसर देखते ही देखते मौत के घाट उतार दिये गए। बगावती सैनिकों ने जेल के फाटक तोड़ दिए और बंदी बनाये गए 85 साथी सिपाहियों के अतिरिक्त जेल में बंद 800 अन्य कैदियों को भी छुड़ा लिया। राव कृष्ण गोपाल ने बड़ी मुस्तैदी से अग्रेजी सैनिकों का सामना किया और फिरंगी सेना को बुरी तरह पराजित कर दिया। बगावती सेना जीत का परचम लहराते हुए दिल्ली की ओर कूच कर गयी। 11 मई को क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली पहुंचे। 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मुग़ल सम्राट बहादुर शाह को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। रेवाड़ी में राव तुलाराम भी स्वाधीनता के लिए प्रयत्नशील थे। यह बात राव कृष्णगोपाल जानते थे। इसलिए मेरठ और दिल्ली में विजय पताका फहराने के बाद अपने बहादुर सिपाहियों को साथ लेकर वे रेवाड़ी आ गए। रेवाड़ी पहुचने पर उनका भब्य स्वागत किया गया। राव तुलाराम अपने भाई के कारनामों से बहुत गर्वित हुए थे।
विद्रोह के चंद दिनों बाद राव तुलाराम ने रेवाड़ी में स्वतंत्रता संग्राम की आग तेज कर दी। अपने चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल को उन्होंने सेनापति नियुक्त किया। वहाँ की जनता मे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने का साहस पैदा किया। सेना में नई भरती करके सैन्य शक्ति को सुदृढ़ बनाया। तत्पश्चात 17 मई, 1857 को पांच सौ यदावों की फ़ौज ने तहसील मुख्यालय पर धावा बोल दिया। तहसीदार तथा थानेदार को बाहर निकल कर तहसील के खजाने और सरकारी दफ्तरों आदि पर पूर्ण रूप से कब्ज़ा कर लिया। राम तुलाराम ने स्वयं को रेवाड़ी, भोरा और शाहजहानपुर परगनों के 421 गावों का शासक घोषित कर दिया। रेवाड़ी के निकट रामपुर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया।वे अपने कुशल प्रशासन के बल पर वह थोड़े ही समय में राजस्व, दान और ऋण के रूप में लाखों रुपये एकत्रित करने में सफल हो गए। इससे उनकी आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत हो गयी। इसके बल पर राव तुलाराम ने रामपुर में तोप, बन्दूक और गोला-बारूद बनाने का कारखाना स्थापित किया। राज्य में आन्तरिक कानून व्यवस्था बेहतर बनाये रखने के साथ बाहरी हमलों से बचाव के लिए भी व्यापक प्रबंध किये गए।
राव तुलाराम की बढ़ती ताकत की सूचना मिलने पर कंपनी के अंग्रेज- हुक्मरान हैरान रह गए। अहीर शक्ति को नष्ट करने के लिए 2 अक्टूबर, 1857 को जनरल सोबर्स के नेतृत्व में फिरंगीयों की एक शक्तिशाली सेना रेवाड़ी पर आक्रमण के लिए भेजी गई । राव साहब द्वारा निर्मित रामपुर का किला गारे(mud) से बना था। गारे से निर्मित किले से शक्तिशाली सेना का मुकाबला संभव नहीं था। स्थिति को भाँपकर तुलाराम जी तुरंत रेवाड़ी से हट गए और अपनी सेना लेकर वे महेद्रगढ़ की ओर बढ़ गए। वे महेंद्रगढ़ किले से युद्ध करना चाहते थे। किन्तु मेन्द्र्गढ़ के राजा अंग्रेजों से मिल गया था इसलिय उसने किला देने से इंकार कर दिया। फिर भी तुलाराम जी हिम्मत नहीं हारे। दृढ संकल्प लिए उन्होंने युद्ध का मैदान नसीबपुर को बनाया। अंग्रेजी सेना के नसीबपुर पहुचते ही राव साहब ने वहाँ धावा बोल दिया और भीषण लड़ाई शुरू हो गई। देशभक्त सेना का आक्रमण इतना जोरदार था ब्रिटिश सैन्य व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। तीन दिन तक चले इस भीषण युद्ध में नसीबपुर की धरती खून से लाल हो गई थी। अंग्रेजी सेना में त्राहि-त्राहि मच गई उनको प्राण बचाना मुश्किल हो गया । इस युद्ध में शामिल अधिकांश गोरे सिपाही मार दिए गए ,जो बचे वे मैदान छोडकर भाग खड़े हुए। भागने वालों में ब्रिटिश कमांडर जनरल रिचर्ड भी शामिल था। अंग्रेजों को हार का सामना करना पड़ा।
नसीबपुर की पराजय ने अंग्रेजों को अशांत कर दिया था। हालात की गंभीरता को देखते हुए वायसराय ने कैप्टेन मेंसफील्ड के नेतृत्व में पहले की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ एवं शक्तिशाली सेना रेवाड़ी की ओर भेज दिया। इस बार भी
भारतीय सेना ने बहादुरी का परिचय देते हुए ब्रिटिश फौज के हौसले पस्त
कर दिये। किन्तु दुश्मन की जोरदार बमबारी से राव साहब की फ़ौज कई हिस्सों
में बँट गई और उसके दो महान योद्धा- राव कृष्ण गोपाल और राव रामलाल
वीरगति को प्राप्त हो गये। उसके बाद भारतीय सेना में भगदड़ मच गई। राव साहब की छोटी सी टुकड़ी ने सिर पर कफ़न बाँध कर शक्तिशाली अंग्रेजी सेना का डटकर मुकाबला किया किन्तु परिस्थतियों ने उन्हें पीछे हटने पर विवश कर दिया। नसीबपुर के इस ऐतिहासिक युद्ध में भारत माता के वीर बेटों को भले ही सफलता प्राप्त नहीं हुई, किन्तु अपने अपूर्व शौर्य, साहस, वीरता और बलिदान से वे अंग्रेजों को भारत की शक्ति का अहसास कराने में पूर्णतया सफल रहे ।
नसीबपुर की हार के बाद भी राव तुलाराम चुप नहीं बैठे। उनके अन्दर भारत माता को आजाद कराने की ज्वाला सदा धधकती रही। इस बीच उनको पकड़ने के लिए अंग्रेजो ने जगह जगह फौज के जाल बिछा दिए और भारी भरकम इनाम की घोषित भी कर दी। किन्तु आजादी के उस दीवाने को वे पकड़ने में सफल नहीं हुए। राव तुलाराम अंग्रेजों की आँख में धूल झोंक कर झांसी की महारानी लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे के पास जा पहुंचे। महारानी लक्ष्मीबाई से विचार विमर्श करके वे विदेशी सहायता प्राप्त करने हेतु ईरान चले गए। ईरान की राजधानी तेहरान में उन्होंने रूसी दूतावास के माध्यम से रूस से सहायता प्राप्ति का प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हुए। तत्पश्चात वह ईरान के शाह से मिले। वहाँ से भी उन्हें कोई सहायता नहीं मिली तो वह अफगानिस्तान चले गए। अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मोहम्मद खान ने उनका भव्य स्वागत तो किया किन्तु ब्रिटिश सरकार से अपनी संधि के कारण राव साहब की कोई सहायता नहीं कर सके। इस बीच उनको दो बहुत दुखद समाचार प्राप्त हुए -पहला झांसी की रानी की मृत्यु का और दूसरा तात्या टोपे को फांसी दिए जाने का । इन दो समाचारों ने राव तुलाराम को बहुत हताश कर दिया। नतीजतन उनका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन ख़राब होने लगा। वह बीमार पड़ गए। राजकीय हकीमों ने उनका अच्छे से अच्चा इलाज किया किन्तु स्वस्थ नहीं हो सके और अंत में भारतमाता का यह वीर सपूत 38 वर्ष की आयु में 23 सितम्बर, 1863 को स्वर्ग सिधार गया। काबुल के अमीर ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार करवाया।
नसीबपुर की हार के बाद भी राव तुलाराम चुप नहीं बैठे। उनके अन्दर भारत माता को आजाद कराने की ज्वाला सदा धधकती रही। इस बीच उनको पकड़ने के लिए अंग्रेजो ने जगह जगह फौज के जाल बिछा दिए और भारी भरकम इनाम की घोषित भी कर दी। किन्तु आजादी के उस दीवाने को वे पकड़ने में सफल नहीं हुए। राव तुलाराम अंग्रेजों की आँख में धूल झोंक कर झांसी की महारानी लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे के पास जा पहुंचे। महारानी लक्ष्मीबाई से विचार विमर्श करके वे विदेशी सहायता प्राप्त करने हेतु ईरान चले गए। ईरान की राजधानी तेहरान में उन्होंने रूसी दूतावास के माध्यम से रूस से सहायता प्राप्ति का प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हुए। तत्पश्चात वह ईरान के शाह से मिले। वहाँ से भी उन्हें कोई सहायता नहीं मिली तो वह अफगानिस्तान चले गए। अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मोहम्मद खान ने उनका भव्य स्वागत तो किया किन्तु ब्रिटिश सरकार से अपनी संधि के कारण राव साहब की कोई सहायता नहीं कर सके। इस बीच उनको दो बहुत दुखद समाचार प्राप्त हुए -पहला झांसी की रानी की मृत्यु का और दूसरा तात्या टोपे को फांसी दिए जाने का । इन दो समाचारों ने राव तुलाराम को बहुत हताश कर दिया। नतीजतन उनका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन ख़राब होने लगा। वह बीमार पड़ गए। राजकीय हकीमों ने उनका अच्छे से अच्चा इलाज किया किन्तु स्वस्थ नहीं हो सके और अंत में भारतमाता का यह वीर सपूत 38 वर्ष की आयु में 23 सितम्बर, 1863 को स्वर्ग सिधार गया। काबुल के अमीर ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार करवाया।
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