कथा त्रेता युग की है। इक्ष्वाकु-वंशीय नृग नामक एक राजा थे, । वह बहुत साहसी थे। धर्मात्मा और दानी भी थे । प्रतिदिन लाखों गायें ब्राहमणों को दान किया करते थे । एक बार दान की हुई एक गाय राजा के यहाँ वापस आगयी और गौशाला में अन्य गायों के साथ रहने लगी। राजा को यह बात मालूम न थी। अनजाने में राजा ने वह गाय दूसरे ब्राह्मण को दान कर दी। इस प्रकार राजा को दान की हुई वस्तु वापस लेकर पुनः दान करने का पाप लगा। इस पाप से राजा को दूसरे जन्म में गिरगिट होना पडा।
विशालकाय गिरगिट के रूप में राजा नृग द्वारिका के समीप एक सूखे कुएं में बहुत दिनों तक भूखे-प्यासे पडे रहे । एक दिन कुछ बालक खेलते हुए उस कुएं पर गये। सूखे कुएं में भारी-भरकम गिरगिट की बुरी दशा देख उनको दया आ गई। बालकों ने उसे बाहर निकालने का प्रयास किया, किन्तु सफल नहीं हुए। वे दौड़ते हुए श्रीकृष्णचन्द्र के पास गए, उनको जानकारी दी । बालकों के मुख से असहाय प्राणी की दयनीय दशा सुनकर दयालु भगवन उसी क्षण वहाँ गए । कुएं के अन्दर प्रवेश किया और कमल के समान सुकोमल चरणों से गिरगिट के शरीर को छू दिया । भगवान के चरण लगते ही राजा नृग पाप मुक्त हो गये । उन्हें गिरगिट-देह से छुटकारा मिल गया। वे सुंदर सुशोभित रूपवान काया में देवता बन गए। देवरूप प्राप्त कर जब वे धरती पर खड़े हुए, तो देखते हैं कि परमपिता परमेश्वर भगवान श्री कृष्ण मनोहर मुस्कान लिए उनके समक्ष खड़े है। दीनदयाल प्रभु के साक्षात के दर्शन पाकर राजा धन्य हो गया। खुशी से झूम उठा और नतमस्तक हो उनको प्रणाम किया। प्रफुल्लित ह्रदय से प्रभु का गुणगान करते हुए विमान में बैठकर वह वैकुण्ठधाम गये ।
जय श्रीकृष्ण
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