महात्मा तुसली दास ने श्रीरामचरित मानस में सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है ;
"बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। "
सत्संग की महिमा पर एक कहानी याद आ गई। बहुत समय पहले की बात है । किसी गाँव में एक व्यक्ति ने चोरों का एक समूह बनाया था । वह स्वयं उनका सरदार था। रात के अँधेरे में दूर-दराज के दूसरे गाँवों में सेंध लगा कर चोरी करना उनका नित्य का नियम था। चोरी से प्राप्त धन को आपस में बाँट लिया करते थे। इस प्रकार प्राप्त धन से वे अपना और अपने परिवार का भरण -पोषण करते थे। यह सिलसिला बहुत दिनों से चलता आ रहा था। रोज रोज की चोरी से लोग बहुत परेशान थे।
एक दिन सरदार कही जा रहा था। अचानक आसमान में चारों तरफ बादल छा गए, गर्जना होने लगी , तूफान चलने लगा , दिन में ही चारों तरफ अँधेरा छा गया। घनघोर वर्षा होने लगी। मौसम बहुत डरावना हो गया। छुपने के लिए चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई, कहीं भी सुरक्षित स्थान दिखाई नहीं दिया। घास फूस की एक झोपड़ी के अतिरिक्त वहाँ दूर दूर तक कहीं कुछ भी नहीं था। चोर पूरी तरह भीग गया था । मौसम के भयंकर मिजाज से वह बहुत घबरा रहा था। उसने आव देखा न ताव, दौड़ कर झोपड़ी में जा घुसा। झोपड़ी में एक साधु महात्मा आसन लगाए ध्यान मग्न बैठे थे। आँखे बंद किये वे भक्ति भावना में लीन थे। सरदार चुप-चाप उनके सामने बैठ गया। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। चोर बैठा रहा । कुछ देर बाद साधू ने आँखे खोली, सरदार को देखा। वह भीग गया था, ठण्ड से काँप रहा था । अन्तर्यामी जाननहार झट पहचान लिया कि यह ठग है।महात्मा जी के मन में दया आ गई।उन्होंने तुरंत ही उसको पहनने के लिए कपडे , ओढ़ने के लिए एक कंबल , खाने के लिए कुछ फल दिए । चोर ने उनके चरणों में गिरकर प्रणाम किया। बातचीत चलने लगी, चोर ने बताया कि ,मिया बीबी और पांच बच्चे समेत परिवार में कुल सात लोग हैं। सबका भरण पोषण उसे ही करना पड़ता है। महात्मा जी ने उसको सन्मार्ग पर लाने के उद्देश्य से ऐसा प्रसंग आरम्भ किया जिसका भावार्थ था कि संसार के सभी प्राणियों को अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है। उस प्रसंग को सुनने के बाद सरदार बेचैन हो गया। महात्मा ने बड़े ही शांत और सरल भाव से पूछा, कहो वत्स ! सब कुशल तो है, तुम इतने बेचैन क्यों हो ?
महात्मा जी के शांत सरल स्वाभाव और तेजस्वी रूप को देखकर चोर के मन में ठगी चोरी जैसे बुरे कर्मों के प्रति घृणा होने लगी थी । चोर ने महात्मा से कहा, " महात्मन! मेरे यहाँ सब कुशल है। मुझे केवल एक चिंता खाए जा रही है। मैंने जीवन भर चोरियाँ की हैं, दूसरों का धन लूटा है। मेरे पाप की गठरी भर गई है। आप संत महात्मा हैं। प्रभु के अनन्य भक्त हैं और बड़े दयालु है। मुझ पर भी कुछ दया कीजिये। मुझे इस पाप से छुटकारा दिलाइये और मेरे उद्धार का मार्ग बताइए।"
महात्मा जी समझ गए कि इसके अंदर सदबुद्धि का संचार हो रहा है। कुछ क्षण विचार करने के बाद साधु ने कहा," सरदार! यदि तुम सचमुच अपना कल्याण चाहते हो तो मेरी बताई हुई दो बातों को सदा याद रखना और उनका पालन करना । चोर बोला "महात्मा जी! मैं आपकी बताई हुई हर बात याद रखूंगा, जीवन भर कड़ाई से उनका पालन करूंगा। आप शीघ्र ही वह उपाय बताइए ।" तब एक शंख देते हुए साधू ने चोर से कहा -" सरदार! मेरी बात ध्यान से सुनो। आज के बाद जब भी तुम्हें भोजन की इच्छा हो तो भोजन ग्रहण करने से पहले पालथी मार कर पृथ्वी पर बैठ जाना। भोजन का थोड़ा सा अंश भगवान् को अर्पित करते हुए मन में कुछ क्षण परमपिता परमेश्वर का ध्यान लगाना । फिर यह शंख बजाना। उसके बाद भोजन ग्रहण करना।" चोर ने कहा -" महात्मन ! मैं आपके इस उपदेश का सदैव पालन करूंगा। आप शीघ्र ही दूसरी बात बताइए।" महात्मा जी ने दूसरा मन्त्र देते हुए उसको कहा-" प्रिय बोलना, सदा सच बोलना, कभी झूठ मत बोलना।" इतना कह कर महात्मा जी ने आसन छोड़ दिया और उठ गए । चोर घर वापस आ गया।
सरदार ने चोरी करना बंद कर दिया। उसके बिना उसके साथी लोग भी चोरी करने से डरने लगे। उनको भी यह काम बंद करना पड़ा। चोरी के अलावा वे कमाई का अन्य उपाय जानते ही न थे। चोरी करना छोड़ दिया तो उन्हें खाने के लाले पड़ गए। बच्चे भूख से तड़पने लगे।उनके घरों में कलह शुरू हो गई। भूख से बिलबिलाते बच्चों का रोना-धोना उनसे देखा नहीं गया। सबने पुनः चोरी शुरू करने निश्चय किया। सरदार को मनाने के लिए सब उसके पास गए। चोरी करने के लिए साथ चलने का आग्रह किया । किन्तु सरदार ने चोरी जैसा घृणित कार्य करने से साफ़ मना कर दिया।तब क्रोधित हो उन लोगों ने सरदार से कहा-" सरदार! हमको चोरी करना तुमने सिखया ,तुम्हारा कहना मान कर बचपन से हम यही काम कर रहे हैं। पैसा कमाने का दूसरा तरीका सीखा ही नहीं। चोरी बंद कर देने से हम निर्धन हो गए । हमारे बच्चे भूख से तड़प रहे है। यह सब तुम्हारे कारण हो रहा है। तुम्हें हमारे साथ चलना ही पड़ेगा।" सरदार ने सोचा कि महात्मा जी ने केवल झूठ बोलने से मन किया है, चोरी करने से तो रोका ही नहीं। यह सोचकर वह अपने साथियों की बात मान गया।
दिन ढलने के बाद सभी चोर सरदार के घर में एकत्रित हुए। योजना बनाकर सब एक साथ निकल पड़े। काले कपडे पहने सरदार आगे-आगे बाकी चोर उसके पीछे। सुनसान रात में उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। बहुत दूर चले गए किन्तु कोई गाँव दिखाई नहीं पड़ा । निराश होकर वे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और सोचने लगे लगता है आज कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। प्रोत्साहित करते हुए सरदार सबको साथ लेकर पुनः आगे बढ़ा। कुछ ही दूर गए होंगे कि उनको बड़ा सा एक गाँव दिखाई दिया। सुनसान रात थी ,घुप अँधेरा था, गाँव में सब सोये हुए थे। सब कुछ उनके अनुकूल था। एक घर में सेंध लगाई और अन्दर घुस गए। घर में सभी सोये हुए थे। जिस चोर के हाथ जो लगा उसे उठा लिया। सरदार अपने लिए कोई कीमती वस्तु ढूढ़ रहा था, बहुत देर तक ढूँढने के बाद उसे एक लोटा दिखाई दिया। लोटा दूध से भरा था। सरदार को बहुत भूख लगी थी। दूध देख कर उसकी जीभ लुट-पुटाने लगी। वह दूध को पीने ही वाला था कि साधू-महात्मा की बताई हुई पहली सीख याद आ गई। साधू ने कहा था - कोई चीज खाने से पहले जमीन पर पालथी मार कर बैठ जाना, भगवान् को भोग लगवाकर शंख बजाना, उसके बाद भोजन ग्रहण करना। यह याद आते ही उसने वही किया जो साधु ने बताया था । घर के आँगन में गया. वहां पालथी मार कर जमीन पर बैठ गया, भगवान् को भोग लगाया फिर लगा जोर-जोर से शंख बजाने । शंख की आवाज सुनकर उसके साथी चोर घबरा गए। पकडे जाने के डर से वे तो भाग गए, किन्तु सरदार ने यथावत अपना काम जारी रखा। वह शंख बजाता रहा। शंख की आवाज सुनकर उस घर के लोगों का जागना स्वाभाविक था वे दौड़ कर झटपट आँगन में आये। चोर को शंख बजाते देख कर सब बड़े आश्चर्यचकित हुए । उन्होंने चोर से पूछा-"! तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?" चोर को महात्मा की बताई हुई दूसरी सीख याद आ गई। महात्मा जी ने कहा था कि प्रिय बोलना सच बोलना कभी झूठ मत बोलना। सच बोलते हुए उसने प्रिय वाणी में कहा -"प्रिय सज्जनों! मैं चोर हूँ और तुम्हारे यहाँ चोरी करने आया हूँ।" यह सुनकर उस घर के कुछ नौजवान उसको मारने दौड़े, किन्तु एक बुजुर्ग ने समझाते हुए कहा - यह चोर नहीं कोंई साधू-महात्मा हैं, चोर घर में घुसकर शंख नहीं बजाते और नहि इस तरह अपने आप को चोर कहते हैं।। इन्हे मारो नहीं, मारने से सर्वनाश हो जायेगा, इनकी सेवा करो।इनके पाँव छुओ , पूजा करो। इससे कल्याण होगा। घर के लोगों ने बुजुर्ग की बात का विश्वास किया, बारी-बारी नतमस्तक हो सबने प्रणाम किया,कोमल आसन पर बैठाकर उसके पाँव पखारे। खाने के लिए स्वादिष्ट पकवान दिए । रात भर उसकी खूब सेवा की।
इलाके में यह बात आग की तरह फ़ैल गई कि फलाँ गाँव में एक किसान के घर महात्मा जी पधारे है। उनके दर्शन से सबका कल्याण होगा। सुबह होते ही चोर के दर्शन करने वालों का ताँता लग गया। लोग उसको अर्पित करने के लिए फूल-पान आदि तो ले ही आ रहे थे, कुछ लोग तो कीमती वस्तुए- हीरे जवाहरात आदि चढ़ाकर सुख शान्ति, धन पुत्र पाने के लिए अरदास करने लगे। चोर बार-बार कहता रहा कि मैं साधू-महात्मा नहीं, चोर् हूँ। वह जितनी बार इस बात को दोहराता उसके प्रति लोगो का विश्वास उतना ही ज्यादा दृढ हो जाता। दिन भर खूब सेवा हुई। धन,आभूषण ,वस्त्र आदि चढ़ावे में बहुत कुछ प्राप्त हुआ। गाँव वालों ने चढ़ावे का सारा माल बैल-गाड़ी में भर कर उसके घर पहुँचाया।
वह धनवान बन गया। उसने चोरी करना छोड़ दिया, लोग उसको संत महात्मा मानने लगे। उसके दर्शन के लिए भीड़ उमड़ने लगी। जीवन भर सुख समृद्धि का आनंद लेता रहा। इसीलिये तो महात्मा तुलसीदास ने कहा है -
"एक घडी आधी घडी आधी की पुन आध। तुलसी संगत साधु की काटे कोटि अपराध।"